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प्रेमचन्द की कहानियाँ 10

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9771

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का दसवाँ भाग


अब सईद के भी तेवर बदले। मेरी तरफ़ क्रोधित आँखों से देखकर बोले- ''जुबेदा, तुम्हारे सर पर शैतान तो नहीं सवार है?''

सईद का यह जुमला मेरे जिगर में चुभ गया, तड़प उठी। जिन लबों से हमेशा प्यार की बातें सुनी हों, उन्हीं से यह जहर निकले और बिलकुल बेखता। क्या मैं ऐसी नाचीज व तुच्छ हो गई हूँ कि एक बाज़ारी औरत भी मुझे छेड़कर गालियाँ दे सकती है और मेरा जबान खोलना मना। मेरे दिल में साल-भर से जो बुखार जमा हो रहा था, वह उबल पड़ा। मैं झूले से उतर पड़ी और सईद की तरफ़ पुर-मलामत निगाहों से देखकर बोली- ''शैतान मेरे सर पर सवार है या तुम्हारे सर पर, इसका फ़ैसला तुम खुद कर सकते हो। सईद, मैं अब तक तुम्हें शरीफ़ और आन रखने वाला समझती थी। तुमने मेरे साथ बेवफ़ाई की, इसका मलाल मुझे जरूर था, मगर मेरे ख्याबो-ख्याल में कभी यह न आया था कि तुम गैरत से इतने रिक्त हो। तुम एक बेशरम औरत के पीछे मुझे यूँ जलील व लज्जित कर रहे हो, इसका बदला तुम्हें खुदा से मिलेगा।''

हसीना ने तेज होकर कहा- ''तू मुझे बेशरम कहती है!''

मैं- ''बेशक कहती हूँ।''

सईद- ''और मैं बेगैरत हूँ? ''

मैं- ''बेशक! बेगैरत ही नहीं, धोखेबाज, मक्कार, दुष्ट सब कुछ हो। ये अल्फाज़ बहुत घृणित हैं, लेकिन मेरे गुस्से के इजहार के लिए काफ़ी नहीं।''

मैं यह बातें कह रही थी कि यकायक सईद के शक्तिशाली डील-डौल वाले मुलाजिम ने मेरी दोनों बाँहें पकड़ लीं और पल भर में हसीना ने झूले की रस्सियाँ उतारकर मुझे बरामदे के लोहे के खंभे में बाँध दिया।

उस वक्त मेरे दिल में क्या ख्यालात आ रहे थे, वो याद नहीं, पर मेरी आखों के सामने अँधेरा-सा छा गया था। ऐसा मालूम होता था कि वह तीनों इंसान नहीं, जहन्नुम के फ़रिश्ते हैं। गुस्से की जगह दिल में एक भय समा गया था। उस वक्त अगर कोई दैवी ताकत मेरी बंदिशों को काट देती, मेरे हाथों में खंजर दे देती तो भी मैं जमीन पर बैठकर अपनी जिल्लत और बेकसी पर आँसू बहाने के सिवा और कुछ न कर सकती। मुझे ख्याल आता था, शायद खुदा की तरफ़ से मुझ पर यह कोप हुआ है। शायद मेरी बेनमाज़ी और बेदीनी की यह सजा मिल रही है। मैं अपनी गुजरी ज़िंदगी पर अवलोकन कर रही थी कि मुझसे कौन-सी खता हुई है, जिसका यह फल है।

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