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			 कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 11 प्रेमचन्द की कहानियाँ 11प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का ग्यारहवाँ भाग
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धाँधली कर लेने के बाद गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दाँव देना तय कर लिया। 
गया ने कहा- अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो। 
मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाए, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा। 
'नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दाँव ले लो।' 
'गुल्ली सूझेगी नहीं।' 
'कुछ परवाह नहीं।' 
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टाँड लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दाँव खो बैठा। मैंने अपनी हृदय की विशालता का परिचय दिया। 
'एक दाँव और खेल लो। तुम तो पहले ही हाथ में हुच गए।' 
'नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।' 
'तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?' 
'खेलने का समय कहाँ मिलता है भैया!' 
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गए। गया चलते-चलते बोला- कल यहाँ गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ। 
			
						
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