कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 12 प्रेमचन्द की कहानियाँ 12प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बारहवाँ भाग
सुरेन्द्र,’मैं जानता तो दो-एक चीजें और ले लेता।’
पार्वती,’ओह! तब तो सारे मुहल्ले में मैं ही मैं होती। औरत की इज्जत गहने-कपड़े से होती है, नहीं तो अपने माँ-बाप भी आँख से गिरा देते हैं।’
सुरेन्द्र पछताए कि और गहने क्यों न खरीद लिए। भले ही दो-चार सौ और उधार हो जाते, इसकी लालसा तो मिटती।
पार्वती को मायके में रहते दो महीने हो गए। सुरेन्द्र को दफ्तर से छुट्टी न मिली कि आकर ले जाते। शादी का सब काम पूरा हुआ, मेहमान बिदा हो गए, सन्नाटा छा गया। धीरे-धीरे पड़ौसिनों का आना-जाना भी बन्द हुआ। पार्वती के गहनों के चार दिन के साम्राज्य का अन्त हो गया। वही गहने थे वही कपड़े, मगर अब उन्हें देखने में क्या आनन्द आता। अब पूरे-पूरे दिन पार्वती अकेली बैठी रहती। कभी कोई औरत मिलने आ भी जाती तो बस दो-चार बातें करके ही अपनी राह लेती। किसी को भी अपने घर के कामकाज से फुर्सत न थी। यह अकेलापन पार्वती को बहुत अखरता। मायके से उसका मन उचाट हो गया। उसे पता चल गया कि नित्य नये गहने बनते रहने से ही उसकी बात बनी रह सकती है, पुराने तमाशे को कोई मुफ्त में भी नहीं देखता। कोढ़ में खाज यह हुई कि और भी कई घरों में उसके जैसे गहने बनने लगे। यहाँ तक कि एक मनचले शौकीन बनिये ने, जिसे नमक के काम में बड़ा भारी लाभ हुआ था, कलकत्ते के बने हुए कंगन और हार मँगवाए, जिन्होंने पार्वती का रंग फीका कर दिया। रही-सही बात भी जाती रही। रेत की दीवार भरभराकर ढह गिरी।
एक दिन पार्वती अकेली बैठी सुरेन्द्र को पत्र लिख रही थी कि अब यहाँ जरा सा भी मन नहीं लगता। दो दिन की छुट्टी मिले तो मुझे ले जाओ। इतने में उसकी बचपन की सहेली बागेश्वरी उससे मिलने आई। वह पार्वती के साथ खेली हुई थी। उसका ब्याह एक गरीब खानदान में हुआ था लेकिन उसके पति ने रंगून जाकर खूब पैसा कमाया और चार-पाँच साल के बाद लौटा तो पत्नी के लिए एक मोतियों का हार लेता आया। बागेश्वरी आज ही मायके आई थी। पार्वती ने उसका मोतियों का हार देखा तो आँखें खुल गईं, दो हजार से कम का नहीं होगा। पार्वती ने उसकी प्रशंसा तो की लेकिन उसका दिल बैठा जाता था; जैसे कोई ईर्ष्यालु कवि अपने नौसिखिये प्रतिद्वंद्वी की कला की प्रशंसा करने में कंजूसी करे।
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