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प्रेमचन्द की कहानियाँ 13

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9774

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेरहवाँ भाग


मैट्रिकुलेशन तो किसी तरह पास हो गया, पर आया सेकेण्ड डिवीजन में और क्वींस कालेज में भरती होने की आशा न रही। फ़ीस केवल अव्वल दरजे वाले की ही मुआफ़ हो सकती थी। संयोग से उसी साल हिन्दू कालेज खुल गया। मैंने इस नये कालेज में पढ़ने का निश्चय किया। प्रिंसिपल थे मि० रिचर्डसन। उनके मकान पर गया। वह पूरे हिन्दुस्तानी वेश में थे। कुरता और धोती पहने फर्श पर बैठे कुछ लिख रहे थे। मगर मिजाज को तबदील करना इतना आसान न था। मेरी प्रार्थना सुनकर-आधी ही कहने पाया था-बोले कि घर में कालेज की बातचीत नहीं करता, क़ालेज में आओ। खैर, कालेज में गया। मुलाकात हुई; पर निराशाजनक। फ़ीस मुआफ़ न हो सकती थी। अब क्या करूँ? अगर प्रतिष्ठित सिफारिशें ला सकता, तो शायद मेरी प्रार्थना पर कुछ विचार होता; लेकिन देहाती युवक को शहर में जानता ही कौन था?

रोज घर से चलता कि कहीं से सिफ़ारिश लाऊँ, पर बारह मील की मंजिल मारकर शाम को घर लौट आता। किससे कहूँ? कोई अपना पुछत्तर न था।

कई दिनों के बाद एक सिफ़ारिश मिली। एक ठाकुर इन्द्रनारायण सिंह हिन्दू कालेज की प्रबन्धकारिणी सभा में थे। उनसे जाकर रोया। उन्हें मुझ पर दया आ गयी। सिफ़ारिशी चिठ्ठी दे दी। उस समय मेरे आनन्द की सीमा न रही। खुश होता हुआ घर आया। दूसरे दिन प्रिन्सिपल से मिलने का इरादा था; लेकिन घर पहुँचते ही मुझे ज्वर आ गया। और दो सप्ताह से पहले न हिला। नीम का काढ़ा पीते-पीते नाक में दम आ गया। एक दिन द्वार पर बैठा था कि मेरे पुरोहितजी आ गये। मेरी दशा देखकर समाचार पूछा और तुरन्त खेतों में जाकर एक जड़ खोद लाये और उसे धोकर सात दाने काली मिर्च के साथ पिसवाकर मुझे पिला दिया। उसने जादू सा असर किया। ज्वर चढऩे में घण्टे ही भर की देर थी। इस औषध ने, मानों जाकर उसका गला ही दबा दिया। मैंने पण्डितजी से बार-बार उस जड़ी का नाम पूछा, पर उन्होंने न बताया। कहा- नाम बता देने से उसका असर जाता रहेगा।

एक महीने बाद मैं फिर मि० रिचर्डसन से मिला और सिफ़ारिशी चिठ्ठी दिखाई। प्रिंसिपल ने मेरी तरफ तीव्र नेत्रों से देखकर पूछा- इतने दिनों कहाँ थे?

‘बीमार हो गया था।’

‘क्या बीमारी थी?’

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