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प्रेमचन्द की कहानियाँ 15

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9776

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पन्द्रहवाँ भाग


ऐ हुजूर, औरतों भी इक्के-तांगे को बड़ी बेदर्दी से इस्तेमाल करती है। कल की बात है, सात-आठ औरतें आईं और पूछने लगी कि तिरबेनी का क्या लोगे। हुजूर निर्ख तो तय है, कोई व्हाइटवे की दुकान तो है नहीं कि साल में चार बार सेल हो। निर्ख से हमारी मजदूरी चुका दो और दुआए लो। यों तो हुजूर मालिक है, चाहें एक बार कुछ न दें मगर सरकार, औरतें एक रुपए का काम है तो आठ ही आना देती हैं। हुजूर हम तो साहब लोगों का काम करते हैं। शरीफ हमेशा शरीफ रहते हैं और हुजूर औरत हर जगह औरत ही रहेगी। एक तो पर्दे के बहाने से हम लोग हटा दिए जाते हैं। इक्के-तांगे में दर्जनों सवरियां और बच्चे बैठ जाते हैं। एक बार इक्के की कमानी टूटी तो उससे एक न दो पूरी तेरह औरतें निकल आईं। मैं गरीब आदमी मर गया। हुजूर सबको हैरत होती है कि किस तरह ऊपर नीचे बैठ लेती हैं कि कैंची मारकर बैठती हैं। तांगे में भी जान नहीं बचती। दोनों घुटनों पर एक-एक बच्चा को भी ले लेती हैं। इस तरह हुजूर तांगे के अन्दर सर्कस का-सा नक्शा हो जाता है। इस पर भी पूरी-पूरी मजदूरी यह देना जानती ही नहीं। पहले तो पर्दे को जारे था। मर्दों से बातचीत हुई और मजदूरी मिल गई। जब से नुमाइश हुई, पर्दा उखड़ गया और औरतें बाहर आने-जानें लगी। हम गरीबों का सरासर नुकसान होता है। हुजूर हमारा भी अल्लाह मालिक है। साल में मैं भी बराबर हो रहता हूं। सौ सुनार की तो एक लोहार की भी हो जाती है। पिछले महीने दो घंटे सवारी के बाद आठ आने पैसे देकर बी अन्दर भागीं। मेरी निगाह जो तांगे पर पड़ी तो क्या देखता हूं कि एक सोने का झुमका गिरकर रह गया। मैं चिल्लाया माई यह क्या, तो उन्होंने कहा अब एक हब्बा और न मिलेगा और दरवाजा बन्द। मैं दो-चार मिनट तक तो तकता रह गया मगर फिर वापस चला आया। मेरी मजूदरी माई के पास रह गई और उनका झुमका मेरे पास।

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