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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


दूसरे दिन से ब्रजनाथ को रुपयों की धुन सवार हुई। सवेरे कानून के लेक्चर में सम्मिलित होते। संध्या को कचहरी से तजवीजों का पुलिंदा घर लाते और आधी रात तक बैठ अनुवाद किया करते! सिर उठाने की मुहलत न मिलती। कभी एक-दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिलकुल शिथिल हो जाता, तब विवश होकर चारपाई पर पड़ रहते।

लेकिन इतने परिश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता। कभी पाचन-क्रिया में विघ्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ़ जाता। तिस पर भी वह मशीन की तरह काम में लगे रहते। भामा कभी-कभी झुँझला कर कहती– अजी लेट भी रहो; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे जैसे दस-पाँच आदमी और होते, तो संसार का काम ही बन्द हो जाता।

ब्रजनाथ इस बाधाकारी व्यंग्य का कोई उत्तर न देते। दिन निकलते ही फिर वही चरखा ले बैठते। यहाँ तक कि तीन सप्ताह बीत गये और 25 रु. हाथ आ गए। ब्रजनाथ सोचते थे, कि दो-तीन दिन में बेड़ा पार है। लेकिन इक्कीसवें दिन उन्हें प्रचंड ज्वर चढ़ आया और तीन दिन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पड़ी। शय्या-सेवी बन गए। भादों का महीना था। भामा ने समझा कि पित्त प्रकोप है। लेकिन जब एक सप्ताह तक डाक्टर की औषधि सेवन करने पर भी ज्वर न उतरा, तब वह घबरायी। ब्रजनाथ प्राय: ज्वर में बकझक भी करने लगते; भामा सुनकर डर के मारे कमरे से भाग जाती। बच्चों को पकड़कर दूसरे कमरे में बन्द कर देती। अब उसे शंका होने लगी थी कि कहीं यह कष्ट उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोगना पड़ रहा है। कौन जाने, रुपयेवाले ने कुछ कर-धर दिया हो! जरूर यही बात है, नहीं तो औषधि से लाभ क्यों नहीं होता? संकट पड़ने पर हम धर्मभीरु हो जाते हैं। भामा ने भी देवताओं की शरण ली। वह जन्माष्टमी, शिवरात्रि और तीज के सिवा और कोई व्रत न रखती थी। इस बार उसने नौरात्र का कठिन व्रत पालन करना आरम्भ किया।

आठ दिन पूरे हो गए। अंतिम दिन आया। प्रभात का समय था। भामा ने ब्रजनाथ को दवा पिलायी और दोनों बालकों को लेकर दुर्गाजी की पूजा करने मंदिर में चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मंदिर के आँगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे दुर्गापाठ कर रहे थे। धूप और अगर की सुगंधि उड़ रही थी। उसने मंदिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविंद से एक विलक्षण दीप्ति झलक रही थी। बड़े उज्ज्वल नेत्रों से प्रभा की किरणें आलोकित हो रही थीं। पवित्रता का एक समाँ-सा छाया हुआ था। भामा इस दीप्तिपूर्ण मूर्ति के सम्मुख सीधी आँखों से ताक न सकी। उसके अंत:करण में एक निर्मल विशुद्ध; भावपूर्ण भय उदय हो गया। उसने आँखें बन्द कर लीं, घुटनों के बल बैठ गई और कर जोड़कर करुण स्वर में बोली– माता! मुझ पर दया करो।

उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानो देवी मुस्करायीं। उसे उन दिव्य नेत्रों से एक ज्योति-सी निकलकर अपने हृदय में आती हुई मालूम हुई। उसके कानों में देवी के मुँह से निकले ये शब्द सुनाई दिये– पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा।

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