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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


औरंगजेब ने यह हाल सुना तो रानियों को पेशावर से दिल्ली बुला भेजा। सर्दी लग जाने से दलथम्भन तो राह में ही मर गया। और लोग कुशल से दिल्ली जा पहुंचे और रूपसिंह उदावत की हवेली में ठहरे। यह दिल्ली में सबसे बड़ी और सरदारों के लिए सुभीते की जगह थी। दूसरे दिन दुर्गादास कर्णोत, महारानियों के आने की सूचना देने के लिए औरंगजेब के पास गया। बादशाह ने लोकाचार के बाद कहा- ‘दुर्गादास! देखो बेचारा दलथम्भन तो मर ही गया। अब हमें चाहिए कि अजीत का लालन-पालन होशियारी से करें, जिससे बेचारे जसवन्तसिंह का दुनिया में नाम रह जाय, इसलिए यही अच्छा होगा, कि अजीत को हमारे पास छोड़ दिया जाये। जैसे जसवन्तसिंह का लड़का, वैसे ही हमारा लड़का। हम उसकी स्वयं देखभाल करेंगे। और बड़े होने पर जोधपुर की गद्दी पर उसका राजतिलक कर देंगे। दुर्गादास बादशाह की मंशा ताड़ गया; परन्तु बड़ी नरमी से बोला जहांपनाह! इसमें कोई सन्देह नहीं, अजीत की रक्षा और पालन, जैसा यहां हो सकता है, और कहीं नहीं हो सकता। आप उसके ऊपर इतनी दया रखते हैं, यह उसका सौभाग्य है, पर अजीत अभी तीन महीने का है, और माता के ही दूध पर उसका जीवन है, इसलिए यह अच्छा होगा, कि दूध छूटने पर वह आपकी सेवा में लाया जाय। औरंगजेब ने दुर्गादास की बात मान ली।

वीर दुर्गादास ने लौटकर महारानी तथा सब राजपूत सरदारों के सामने, बादशाह की बातचीत जैसी-की-तैसी कह सुनाई। सुनते ही सरदारों की आंखें लाल हो गयीं। दुर्गादास ने कहा- ‘भाइयो! यह समय क्रोध का नहीं, चतुराई का है। पहले किसी उपाय से राजकुमार को दिल्ली से हटाया जाय, फिर जैसा होगा, देखा जायेगा। आनन्ददास खेंची, जो सबसे चतुर सरदार था, सवेरे ही एक सपेरे को लालच देकर लाया और उसकी सांप वाली पिटारी में राजकुमार को छिपाकर दिल्ली से बाहर निकल गया। वहां से आबू की घनी पहाड़ियों के बीच से होकर, मारवाड़ के एक डुगबा नाम के गांव में अपने मित्र जयदेव ब्राह्मण के घर पहुंचा। वहीं छिपे-छिपे राजकुमार का लालन-पालन करने लगा। इधर महारानी की गोद में राजकुमार की जगह दूसरा लड़का रख दिया गया।

एक वर्ष बीत जाने पर, जब औरंगजेब ने देखा, राजपूत अजीत को सीधे-सीधे नहीं देना चाहते, तो उसने जबरदस्ती राजकुमार को लाने के लिए शहर कोतवाल फौलाद को भेजा। उसने दो हजार हथियारबन्द सिपाही लेकर रूपसिंह उदावत की हवेली घेर ली। एकाएक अपने को विपत्ति में पड़ा देख दुर्गादास ने कहा- ‘भाइयो! राजपूत दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का लालच नहीं करते। हम राजपूत कहला कर राजकुमार के समान पाले हुए बालक को अपने हाथों मौत के मुंह में डालना नहीं चाहते।

महारानी ने कहा- ‘हमारी चिन्ता मत करो, हमारी लाज रखने वाली यह कटारी है। मैं कब की मर चुकी होती यदि यह देखने की लालसा न होती, कि राजपूत अपने देश पर किस वीरता से अपने प्राणों को न्योछावर करते हैं!

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