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प्रेमचन्द की कहानियाँ 17

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9778

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग


दुर्गादास ने कहा- ‘संभल जा। राजपूत कभी निहत्थे शत्रु पर वार नहीं करते। देख, यह वही तलवार है, जिसने वृद्धा मां जी का रक्तपान किया है। अभी प्यासी है, अब तेरे रक्त से इसकी प्यास बुझाऊंगा।

शमशेर खां सजग होकर सामने आया। वीर दुर्गादास ने एक ही वार में उसका सिर उड़ा दिया। तब तलवार वहीं फेंक दी और अपने सहायक शूरवीरों को साथ ले कल्याणगढ़ की ओर चल दिया।

दुर्गादास की इच्छा थी कि मां जी का अग्नि संस्कार कर दिया जाय। इसलिए कल्याणगढ़ गया भी था, परन्तु मुगल सिपाहियों ने पहले ही दुर्गादास का घर ही नहीं, सारा कल्याणगढ़ ही फूंक दिया था। अपने गांव की दशा देख, बेचारे की आंख में आंसू भर गये। थोड़ी देर मौन खड़ा रहा। फिर क्रोध में आकर बोला भाइयों! जब कोई अपराध न करने पर शत्रुओं ने मां जी को मार डाला, घर-बार लूट लिया और गांव जला दिया, तो फिर उससे मेल की क्या आशा की जा सकती है। ऐसे हत्यारों से मेल करके हम मारवाड़ को अपमानित नहीं कर सकते। हमारा धर्म केवल पहाड़ियों में छिपकर जान बचाना ही नहीं है। अब तो गांव-घर न होने पर मारवाड़ ही हमारा घर है; वृद्धा मां जी की जगह मारवाड़ की पवित्र भूमि ही हमारी माता है; इसलिए जब तक अपनी माता के संकटों को दूर न कर लूंगा, (म्यान से तलवार निकालकर) तब तक म्यान से निकली हुई तलवार फिर म्यान में न रखूंगा।

यह प्रण करके वीर दुर्गादास अपने बेटे, भाई और थोड़े-से राजपूतों को साथ ले अरावली पहाड़ की ओर चला गया।

वीर दुर्गादास से विदा होकर नाथू दूसरे दिन माड़ों पहुंचा। दुर्गादास का सेवक जानकर द्वारपाल उसे महाराज महासिंह के पास ले गया। महासिंह ने नाथू को आदर के साथ बैठाया, और वीर दुर्गादास का सन्देश सुना। थोड़ी देर उदास मन हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहे। फिर बोले नाथू! बड़े दुख की बात है कि जिसके लिए दुर्गादास ने मुगलों से बैर किया, वह राजसुख भोगे! धिक्कार है ऐसे जीवन पर! अपने प्राण बचाने वाले की नेकियों का कुछ भी बदला न दे सका। नाथू, मैं कल ही तुम्हारे साथ चलूंगा।

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