कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 17 प्रेमचन्द की कहानियाँ 17प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सत्रहवाँ भाग
गुलाबसिंह ने कहा- ‘महाराज! ठाकुर रूपसिंह उदावत ने जिस समय देसुरी की खबर सुनी थी, उसी समय उन्होंने लगभग एक हजार वीरों को आपकी सहायता के लिए वालू भेजा है। कदाचित वे सब आ भी गये हों। वीर दुर्गादास जैसे ही द्वार पर आये, राजपूतों के जय-जयकार के शब्द से आकाश गूंज उठा- मरुदेश स्वतन्त्र हो! वीर दुर्गादास की जय हो!
वीर दुर्गादास सबों को यथोचित सम्मान दे, घोड़े पर सवार हो लश्कर के आगे-आगे चले। पीछे जसकरण, तेजकरण, मानसिंह तथा गंभीरसिंह इत्यादि चले। जब गांव थोड़ी दूर रह गया तो दुर्गादास ने अपने वीरों को दबे पांव चलने की आज्ञा दी, जिसमें किसी को कानों-कान खबर न हो और पापी इनायत का घर घेर लिया। वीरों ने वैसा ही किया। दूसरों को तो क्या, अपनी चाप आप ही न सुन सकते थे। चारों ओर सन्नाटा छा गया। अब धीरे-धीरे लश्कर गांव में पहुंच गया। एकाएक दुर्गादास ने किसी के रोने की आवाज सुनी। मानसिंह को आगे बढ़ने की आज्ञा दे, आप उस ओर चला, जिधर रोने की आवाज आ रही थी। घर का द्वार खुला था, भीतर चला गया। देखा तो सामने एक मुरदा पड़ा था और सिरहाने एक बुढ़िया सिर पीट-पीटकर रो रही थी। दुर्गादास को देखते ही और फूट-फूटकर रोने लगी। दुर्गादास ने बुढ़िया से रोने का कारण पूछा। बुढ़िया ने कहा- ‘बेटा, मैं तेरी स्त्री की धाय हूं। छुटपन में मैंने जो दूध पिलाया है, आज उसके बदले में अपने स्वामी का बदला मुगलों से लेने तुमसे मांगती हूं।
वीर दुर्गादास ने बुढ़िया के सामने मुगलों से बदला लेने का प्रण किया और वहीं चिता बनाकर मुरदे का अग्निसंस्कार कर दिया। तब एक जलता हुआ चैला चिता से निकाल, इनायत के घर की ओर चल दिया। रास्ते में गंभीरसिंह मिला। दुर्गादास के हाथ में एक परचा देकर बोला महाराज, यह किले की सामने वाली दीवार में चिपका हुआ था। मैं इसे आप ही को दिखाने के लिये उखाड़ लाया हूं। देखिए, इसकी एक तरफ उन राजपूतों के नाम हैं जो मारे जा चुके हैं और दूसरी तरफ उनके नाम हैं, जो पकड़े गये हैं और जिन्हें अब फांसी की आज्ञा होगी। महाराज, अब मुझसे रहा नहीं जाता। देखिए, इस सूची में हमारे वृद्ध पिता केसरीसिंह का भी नाम है। यद्यपि सभी राठौर हमारे लिए पिता के समान हैं और कारागार में दशा भी सबकी एक-सी है, तथापि मैं अपने पिता के दुख को औरों के देखते अधिक समझता हूं; क्योंकि मैं अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध; देश सेवा के लिए एक वर्ष से अधिक हुआ, घर से निकला था और अभी तक उनके पास नहीं गया। कुटुम्ब की देखभाल के लिए मैं या मेरे पिताजी ही थे, इसलिये पहले तो पिताजी को मेरी ही चिन्ता थी, अब अपनी और कुटुम्ब की भी हो गई।
दुर्गादास ने कहा- ‘बेटा! धैर्य धरो, जिस ईश्वर ने सोजितगढ़ सर कराया है, वही देसूरी पर भी विजय दिलायेगा और तुम्हारे पिता को नहीं, किन्तु मारवाड़ देश को ही मुगलों से मुक्त करायेगा। चलो इनायत को आज ही उसके कर्मों का प्रतिफल दें।
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