| कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 19 प्रेमचन्द की कहानियाँ 19प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग
केदार ने उत्तर दिया- मद्धू! आजकल मैं भी तंग हो रहा हूँ, तुमसे सच कहता हूँ। 
चम्पा अधिकारपूर्ण स्वर से बोली- अरे, तो क्या इनके लिए भी तंग हो रहे हैं! अलग भोजन करने से क्या इज्जत अलग हो जायेगी! 
केदार ने स्त्री की ओर कनखियों से ताक कर कहा- नहीं-नहीं, मेरा यह प्रयोजन नहीं था। हाथ तंग है तो क्या, कोई न कोई प्रबन्ध किया ही जायेगा। 
चम्पा ने माधव से पूछा- पाँच बीस से कुछ ऊपर ही पर गहने रखे थे न। 
माधव ने उत्तर दिया- हाँ, ब्याज सहित कोई सवा सौ रुपये होते हैं। 
केदार रामायण पढ़ रहे थे। फिर पढ़ने में लग गये। चम्पा ने तत्त्व की बातचीत शुरू की- रुपया बहुत है, हमारे पास होता तो कोई बात न थी परन्तु हमें भी दूसरे से दिलाना पड़ेगा और महाजन बिना कुछ लिखाये-पढ़ाये रुपया देते नहीं। 
माधव ने सोचा, यदि मेरे पास कुछ लिखाने-पढ़ाने को होता, तो क्या और महाजन मर गये थे, तुम्हारे दरवाजे आता क्यों? बोला-लिखने-पढ़ने को मेरे पास है ही क्या? जो कुछ जगह-जायदाद है, वह यही घर है। 
केदार और चम्पा ने एक दूसरे को मर्मभेदी नयनों से देखा और मन ही मन कहा- क्या आज सचमुच जीवन की प्यारी अभिलाषाएँ पूरी होंगी। परन्तु हृदय की यह उमंग मुँह तक आते-आते गम्भीर रूप धारण कर गयी। चम्पा बड़ी गम्भीरता से बोली- घर पर तो कोई महाजन कदाचित् ही रुपया दे। शहर हो तो कुछ किराया ही आवे, पर गँवई में तो कोई सेंत में रहने वाला भी नहीं। फिर साझे की चीज ठहरी। 
केदार डरे कि कहीं चम्पा की कठोरता से खेल बिगड़ न जाय। बोले- एक महाजन से मेरी जान-पहचान है। वह कदाचित् कहने-सुनने में आ जाय! 
चम्पा ने गर्दन हिला कर इस युक्ति की सराहना की और बोली- पर दो-तीन बीस से अधिक मिलना कठिन है। 
			
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