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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


मसूरी रमणीक है, इसमें संदेह नहीं, श्यामवर्ण मेघमालाएँ पहाड़ियों पर विश्राम कर रही हैं, शीतल पवन आशा तरंगों की भाँति चित्त का रंजन कर रहा है; पर मुझे ऐसा विश्वास है कि विनोद के साथ मैं किसी निर्जन वन में भी इतने ही सुख से रहती। उन्हें पाकर अब मुझे किसी वस्तु की लालसा नहीं। बहन, तुम इस आनंदमय जीवन की शायद कल्पना भी न कर सकोगी। सुबह हुई, नाश्ता आया, हम दोनों ने नाश्ता किया; मोटर तैयार है, नौ बजते-बजते सैर करने निकल गए। किसी जल-प्रपात के किनारे जा बैठे। वहाँ जल-प्रवाह का मधुर संगीत सुन रहे हैं या किसी शिला-खंड पर बैठे मेघों की व्योम-क्रीड़ा देख रहे हैं। 11 बजते-बजते लौटे। भोजन तैयार है। भोजन किया। मैं प्यानो पर जा बैठी। विनोद को संगीत से प्रेम है। खुद बहुत अच्छा गाते हैं, और मैं गाने लगती हूँ तब तो वह झूमने ही लगते हैं। तीसरे पहर हम एक घंटे के लिए विश्राम करके खेलने या कोई खेल देखने चले जाते हैं। रात को भोजन करने के बाद थिएटर देखते हैं और वहीं से लौटकर शयन करते हैं। न सास की घुड़कियाँ हैं, न ननदों की कानाफूसी, न जेठानियों के ताने, पर इस सुख में भी मुझे कभी-कभी एक शंका-सी होती है - फूल में कोई काँटा तो नहीं छिपा हुआ है, प्रकाश के पीछे कहीं अँधकार तो नहीं है! मेरी समझ में नहीं आता ऐसी शंका क्यों होती है। अरे! यह लो पाँच बज गए, विनोद तैयार है, आज टेनिस का मैच देखने जाना है। मैं भी जल्दी से तैयार हो जाऊँ। शेष बातें फिर लिखूँगी।

हाँ, एक बात तो भूली ही जा रही थी। अपने विवाह का समाचार लिखना। पतिदेव कैसे हैं? रंग-रूप कैसा है? ससुराल गई, या अभी मैके ही में हो? ससुराल गई तो वहाँ के अनुभव अवश्य लिखना। तुम्हारी खूव नुमाइश हुई होगी। घर, कुटुंब और महल्ले की महिलाओं ने घूँघट उठा-उठाकर खूब मुँह देखा होगा, खूब परीक्षा हुई होगी। ये सभी बातें विस्तार से लिखना। देखें, कब फिर मुलाक़ात होती है।

तुम्हारी
पद्मा  


गोरखपुर  
1 -9-25

प्यारी पद्मा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर चित्त को बड़ी शांति मिली। तुम्हारे न आने ही से मैं समझ गई थीं कि विनोद बाबू तुम्हें हर ले गए, मगर यह न समझी थी कि तुम मसूरी पहुँच गई। अब उस आमोद-प्रमोद में भला ग़रीब चंदा तुम्हें क्यों याद आने लगी। अब मेरी समझ में आ रहा है कि विवाह के नए और पुराने आदर्श में क्या अंतर है। तुमने अपनी पसंद से काम लिया, सुखी हो, मैं लोक-लाज की दासी बनी रही, नसीबों को रो रही हूँ।

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