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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


गोरखपुर
25-9-25

प्यारी पद्मा,
कल तुम्हारा खत मिला, आज जवाब लिख रही हूँ। एक तुम हो हो कि महीनों रटाती हो। इस विषय में तुम्हें मुझसे उपदेश लेना चाहिए। विनोद बाबू पर तुम व्यर्थ ही आक्षेप लगा रही हो, तुमने क्यों पहले ही उनकी आर्थिक दशा की जाँच-पड़ताल नहीं की? बस एक सुंदर, रसिक, शिष्ट, वाणी-मधुर, युवक देखा और फूल उठी। अब भी तुम्हारा ही दोष है। तुम अपने व्यवहार से, रहन-सहन से, सिद्ध कर दो कि तुम में गंभीर अंश भी है, फिर देखूँ विनोद बाबू कैसे तुमसे परदा रखते हैं। और बहन, यह तो मानवी स्वभाव है, सभी चाहते हैं कि लोग हमें संपन्न समझें, इस स्वाँग को अंत तक निभाने की चेष्टा की जाती है और जो इस काम में सफल हो जाता है, उसी का जीवन सफल समझा जाता है। जिस युग में धन ही सर्वप्रधान हो, मर्यादा, कीर्ति, यश, यहाँ तक कि विद्या भी धन से खरीदी जा सके, उस युग में स्वाँग भरना एक लाजिमी बात हो जाती है। अधिकार योग्यता का मुँह ताकते हैं। यही समझ लो कि इन दोनों में फूल और फल का संबंध है। योग्यता का फूल लगा और अधिकार का फल आया।

इस ज्ञानोपदेश के बाद अब तुम्हें हार्दिक धन्यवाद देती हूँ। तुमने पतिदेव के नाम जो पत्र लिखा था, उसका बहुत अच्छा असर हुआ। उसके पांचवें ही दिन स्वामी का कृपापत्र मुझे मिला। बहन, वह खत पाकर मुझे कितनी खुशी हुई, इसका तुम अनुमान कर सकती हो। मालूम होता था, अंधे को आँखें मिल गई हैं। कभी कोठे पर जाती थी, कभी नीचे आती थी। सारे घर में खलबली पड़ गई। तुम्हें वह पत्र अत्यंत निराशाजनक जान पड़ता, मेरे लिए वह संजीवन-मंत्र था, आशा-दीपक था। प्राणेश ने बरातियों की उद्दंडता पर खेद प्रकट किया था, पर बड़ों के सामने वह जबान कैसे खोल सकते थे। फिर जनातियों ने भी बरातियों का जैसा आदर-सत्कार करना चाहिए था, वैसा नहीं किया। अंत में लिखा था- ''प्रिय, तुम्हारे दर्शनों की कितनी उत्कंठा है, लिख नहीं सकता। तुम्हारी कल्पित मूर्ति नित आँखों के सामने रहती है, पर कुल-मर्यादा का पालन करना मेरा कर्तव्य है, जब तक माता-पिता का रुख न पाऊँ, आ नहीं सकता। तुम्हारे वियोग में चाहे प्राण ही निकल जाएँ, पर पिता की इच्छा की उपेक्षा नहीं कर सकता। ही, एक बात का दृढ़ निश्चय कर चुका हूँ-चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए, कपूत कहलाऊँ, पिता के कोप का भागी बनूँ घर छोड़ना पड़े; पर अपनी दूसरी शादी न करूँगा। मगर जहाँ तक मैं समझता हूँ मामला इतना तूल न खीचेगा, यह लोग थोड़े दिनों में नर्म पड़ जाएँगे और तब मैं आऊँगा और अपनी हृदयेश्वरी को आँखों पर बिठाकर लाऊँगा।''

बस, अब मैं संतुष्ट हूँ बहन, मुझे और कुछ न चाहिए। स्वामी मुझ पर इतनी कृपा रखते हैं, इससे अधिक और वह क्या कर सकते हैं। प्रियतम, तुम्हारी चंदा सदा तुम्हारी रहेगी, तुम्हारी इच्छा हो उसका कर्तव्य है, वह जब तक जिएगी, तुम्हारे पवित्र चरणों से लगी रहेगी, उसे बिसारना मत।

बहन, आँखों में आँसू भरे आते हैं, अब नहीं लिखा जाता, जवाब जल्द देना।

तुम्हारी
चंदा  

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