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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


पुरुष ने खड़े-खड़े कहा- ''मैं तो इसी कमरे में बैठूँगा। मरदाने कमरे में भीड़ बहुत है।''

मैंने रोष से कहा- ''नहीं, आप इसमें नहीं बैठ सकते।''

''मैं तो बैठूँगा।''

''आपको निकलना पडेगा। आप अभी चले जाइए नहीं मैं अभी जंजीर खींच लूँगी।''

''अरे साहब, मैं भी आदमी हूँ कोई जानवर नहीं हूँ। इतनी जगह पड़ी हुई है। आपका इसमें क्या हरज है।''

गाड़ी ने सीटी दी। मैं और भी घबराकर बोली- ''आप निकलते हैं या मैं जंजीर खींचूँ?''

पुरुष ने मुस्कराकर कहा- ''आप तो बड़ी गुस्सावर मालूम होती हैं। एक ग़रीब आदमी पर आपको जरा भी दया नहीं आती?''

गाड़ी चल पड़ी। मारे क्रोध और लज्जा के मुझे पसीना आ गया। मैंने फ़ौरन द्वार खोल लिया और बोली- ''अच्छी बात है आप बैठिए, मैं ही जाती हूँ।''

बहन, सच कहती हूँ मुझे उस वक्त लेश-मात्र भी भय न था। जानती थी गिरते ही मर जाऊँगी, पर एक अजनवी के साथ अकेले बैठने से मर जाना अच्छा था। मैंने एक पैर लटकाया ही था कि उस पुरुष ने मेरी बाँह पकड़ ली और अंदर खींचता हुआ बोला- ''अब तक तो आपने मुझे काले पानी भेजने का सामान कर दिया था। यहाँ कोई और तो है नहीं, फिर आप इतना क्यों घबडाती हैं। बैठिए, जरा हँसिए-बोलिए। अगले स्टेशन पर मैं उतर जाऊँगा, इतनी देर तक तो कृपा-कटाक्ष से वंचित न कीजिए। आपको देखकर दिल क़ाबू से बाहर हुआ जाता है। क्यों कर गरीब का खून सिर पर लीजिएगा।''

मैंने झटककर अपना हाथ छुड़ा लिया। सारी देह काँपने लगी। आँखों में आँसू भर आए। उस वक्त अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार होती तो मैंने जरूर उसे निकाल लिया होता, और मरने मारने को तैयार हो गई होती। मगर इस दशा में क्रोध से ओंठ चबाने के सिवा और क्या करती। आखिर झल्लाना व्यर्थ समझकर मैंने सावधान होने की चेष्टा करके कहा- ''आप कौन हैं?'' उसने उसी ढिटाई से कहा- ''तुम्हारे, प्रेम का इच्छुक।''

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