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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


युवक ने मुस्करा कर कहा- ''मैं अभी क्वांरा हूँ और शायद क्वांरा ही रहूँ।''

मैंने उत्सुक होकर पूछा- ''अच्छा! तो आप भी स्त्रियों से भागनेवाले जीवों में हैं। इतनी वातें हो गई और आपका नाम तक न पूछा।''

वाबू ने अपना नाम भुवनमोहनदास गुप्त बताया। मैंने अपना परिचय दिया।  

''जी नहीं, मैं उन अभागों में हूँ जो एक बार निराश होकर फिर उसकी परीक्षा नहीं करते। रूप की तो संसार में कमी नहीं, मगर रूप और गुण का मेल बहुत कम देखने में आता है। जिस रमणी से मेरा प्रेम था वह आज एक बड़े वकील की पत्नी है। मैं ग़रीब था। इसकी सजा मुझे ऐसी मिली कि जीवन-पर्यंत न भूलेगी। साल-भर तक जिसकी उपासना की, जब उसने मुझे धन पर बलिदान कर दिया, तो अब और क्या आशा रखूँ।''

मैंने हँसकर कहा- ''आपने बहुत जल्द हिम्मत हार दी।''

भुवन ने सामने द्वार की ओर ताकते हुए कहा- ''मैंने आज तक ऐसा वीर ही नहीं देखा जो रमणियों से परास्त न हुआ हो। ये हृदय पर चोट करती हैं और हृदय एक ही गहरी चोट सह सकता है। जिस रमणी ने मेरे प्रेम को तुच्छ समझकर पैसे से कुचल दिया उसको मैं दिखाना चाहता हूँ कि मेरी आखों में धन कितनी तुच्छ वस्तु है। यही मेरे जीवन का एक मात्र उद्देश्य है। मेरा जीवन उसी दिन सफल होगा जब विमला के घर के सामने मेरा विशाल भवन होगा और उसका पति मुझसे मिलने में अपना सौभाग्य समझेगा।''

मैंने गंभीरता से कहा- ''यह तो कोई बहुत ऊँचा उद्देश्य नहीं है। आप यह क्यों समझते हैं कि विमला ने केवल धन के लिए आपका परित्याग किया। संभव है इसके और भी कारण हों। माता-पिता ने उस पर दबाव डाला हो या अपने ही में उसे कोई ऐसी त्रुटि दिखाई दी हो, जिससे आपका जीवन दुखमय हो जाता। आप यह क्यों समझते हैं कि जिस प्रेम से वंचित होकर आप इतने दुखी हुए, उसी प्रेम से वंचित होकर वह सुखी हुई होगी। संभव था कोई धनी स्त्री पाकर आप भी फिसल जाते।''

भुवन ने जोर देकर कहा- ''यह असंभव है, सर्वथा असंभव है। मैं उसके लिए त्रिलोक का राज्य भी त्याग देता।''

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