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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


बहन पत्र बहुत लंबा हो गया, तुम पढ़ते-पढ़ते ऊब गई होगी। मैं भी लिखते-लिखते थक गई। अब शेष बातें कल लिखूँगी। परसों यह पत्र तुम्हारे पास जाएगा। बहन, क्षमा करना, कल पत्र लिखने का अवसर नहीं मिला। रात एक ऐसी बात हो गई, जिससे चित्त अशांत हो उठा। बड़ी मुश्किलों से यह थोड़ा-सा समय निकाल सकी हूँ। मैंने अभी तक आनंद से घर के किसी प्राणी की शिकायत नहीं की थी। अगर सासजी ने कोई बात कर दी या ननदजी ने कोई ताना दे दिया, तो इसे उनके कानों तक क्यों पहुँचाऊँ। इसके' सिवा कि गृह-कलह उत्पन्न हो, इससे और क्या हाथ आएगा। इन्हीं ज़रा-ज़रा-सी बातों को पेट में न डालने से घर बिगड़ते हैं। आपस में वैमनस्य बढ़ता है। मगर संयोग की बात, कल अनायास ही मेरे मुँह से एक बात निकल गई, जिसके लिए मैं अब भी अपने को कोस रही हूँ और ईश्वर से मनाती हूँ कि वह आगे न बढ़े। बात यह हुई कि कल आनंद बाबू बहुत देर करके मेरे पास आए। मैं उनके इंतज़ार में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। सहसा सासजी ने आकर पूछा- ''क्या अभी तक बिजली जल रही है? क्या वह रात-भर न आएँ, तो तुम रात भर बिजली जलाती रहोगी!''

मैंने उसी वक्त बत्ती ठंडी कर दी। आनंद बाबू थोड़ी ही देर में आए, तो कमरा अँधेरा पड़ा था। न जाने उस वक्त मेरी मति कितनी मंद हो गई थी। अगर मैंने उनकी आहट पाते ही बत्ती जला दी होती, तो कुछ न होता। मगर मैं अँधेरे में पड़ी रही। उन्होंने पूछा- ''क्या सो गई। यह अँधेरा क्यों पड़ा हुआ है?''

हाय! इस वक्त भी यदि मैंने कह दिया होता कि मैंने अभी बत्ती गुल कर दी है, तो बात बन जाती। मगर मेरे मुँह से निकला- ''सासजी का हुक्म हुआ कि बत्ती गुल कर दो, गुल कर दी। तुम रात भर न आओ, तो क्या रात-भर बत्ती जलती रहे।''  

''तो अब तो जला दो। मैं रोशनी के सामने से आ रहा। मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं।''

''मैंने अब बटन को हाथ छूने की कसम खा ली। जब जरूरत पड़ेगी मोम की बत्ती जला लिया करूँगी। कौन मुफ्त में घुड़कियाँ सहे।''

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