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प्रेमचन्द की कहानियाँ 19

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9780

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्नीसवाँ भाग


अब मेरा हाल सुनो। मैंने सोचा था पत्रों में अपनी बीमारी का समाचार छपवा दूँगी, लेकिन फिर ख्याल आया यह समाचार छपते ही मित्रों का ताँता लग जाएगा। कोई मिज़ाज पूछने आवेगा, कोई देखने आवेगा। फिर मैं कोई रानी तो हूँ नहीं जिसकी बीमारी का बुलेटिन रोजाना छापा जाए। न जाने लोगों के दिल में कैसे-कैसे विचार उत्पन्न हों। यह सोचकर मैंने पत्र छपवाने का विचार छोड़ दिया। दिन-भर मेरे चित्त की क्या दशा रही, लिख नहीं सकती। कभी मन में आता जहर खा लूँ कभी सोचती कहीं उड़ जाऊँ। विनोद के संबंध में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगीं। अब मुझे ऐसी कितनी ही बातें याद आने लगीं जब मैंने विनोद के प्रति उदासीनता का भाव दिखाया था। मैं उनसे सब कुछ लेना चाहती थी, देना कुछ न चाहती थी। मैं चाहती थी कि वह आठों पहर भ्रमर की भाँति मुझ पर मँडराते रहें, पतंग की भाँति मुझे घेरे रहें। उन्हें किताबों और पत्रों में मग्न बैठे देखकर मुझे झुँझलाहट होने लगती थी। मेरा अधिकांश समय अपने ही बनाव-सिंगार में कटता था, उनके विषय में मुझे कोई चिंता ही न होती थी। अब मुझे मालूम हुआ कि सेवा का महत्त्व रूप से कहीं अधिक है। रूप मन को मुग्ध कर सकता है, पर आत्मा को आनंद पहुँचानेवाली कोई दूसरी ही वस्तु है। इस तरह एक हफ्ता गुज़र गया। मैं प्रातःकाल मैके जाने की तैयारियाँ कर रही थी- यह घर फाड़े खाता था कि सहसा डाकिए ने मुझे एक पत्र लाकर दिया। मेरा हृदय धक्-धक् करने लगा। मैंने काँपते हुए हाथों से पत्र लिया, पर सिरनामे पर विनोद की परिचित हस्तलिपि न थी, लिपि किसी स्त्री की थी, इसमें संदेह न था, पर मैं उससे सर्वथा अपरिचित थी। मैंने तुरंत पत्र खोला और नीचे की तरफ़ देखा तो चौंक पड़ी- यह कुसुम का पत्र था। मैंने एक ही साँस में सारा पत्र पढ़ लिया। लिखा था- 'बहन, विनोद बाबू तीन दिन यहाँ रहकर बंबई चले गए। शायद विलायत जाना चाहते हैं। तीन-चार दिन बंबई रहेंगे। मैंने बहुत चाहा कि उन्हें देहली वापस कर दूँ पर वह किसी तरह न राजी हुए, तुम उन्हें नीचे लिखे पते से तार दे दो। मैंने उनसे यह पता पूछ लिया था। उन्होंने मुझे ताकीद कर दी थी कि इस पते को गुप्त रखना, लेकिन तुमसे क्या परदा। तुम तुरंत तार दे दो। शायद रुक जाएँ। यह बात क्या हुई! मुझसे तो विनोद ने बहुत पूछने पर भी नहीं बताया, पर वह दुःखी बहुत थे। ऐसे आदमी को भी तुम अपना न बना सकी इसका मुझे आश्चर्य है, पर मुझे इसकी पहले ही शंका थी। रूप और गर्व में दीपक और प्रकाश का संबंध है। गर्व रूप का प्रकाश है....।

मैंने पत्र रख दिया और उसी वक्त विनोद के नाम तार भेज दिया- कि बहुत बीमार हूँ तुरंत आओ। मुझे आशा थी कि विनोद तार द्वारा जवाब देंगे, लेकिन सारा दिन गुज़र गया और कोई जवाब न आया। बँगले के सामने से कोई साइकिल निकलती तो मैं तुरंत उसकी ओर ताकने लगती थी कि शायद तार का चपरासी हो। रात को भी मैं तार इंतजार करती रही। तब मैंने अपने मन को इस विचार से शांत किया कि विनोद आ रहे हैं, इसलिए तार भेजने की जरूरत न समझी।

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