कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 21 प्रेमचन्द की कहानियाँ 21प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इक्कीसवाँ भाग
परशुराम: धन की तुम्हें क्या कमी थी, कोई एक सोने की चीज बेच देती तो काफी रुपए मिल जाते।
मर्यादा: आदमी तो नहीं थे।
परशुराम: तुमने यह कहा था कि खर्च की कुछ चिन्ता न कीजिए, मैं अपने गहने बेचकर अदा कर दूंगी?
मर्यादा: सब स्त्रियां कहने लगीं, घबरायी क्यों जाती हो? यहां किस बात का डर है। हम सभी जल्द अपने घर पहुंचना चाहती है; मगर क्या करें? तब मैं भी चुप हो रही।
परशुराम: और सब स्त्रियां कुएं में गिर पड़ती तो तुम भी गिर पड़ती?
मर्यादा: जानती तो थी कि यह लोग धर्म के नाते मेरी रक्षा कर रहे हैं, कुछ मेरे नौकर या मजूर नहीं हैं, फिर आग्रह किस मुंह से करती? यह बात भी है कि बहुत-सी स्त्रियों को वहां देखकर मुझे कुछ तसल्ली हो गई।
परशुराम: हां, इससे बढ़कर तस्कीन की और क्या बात हो सकती थी? अच्छा, वहां के दिन तस्कीन का आनन्द उठाती रही? मेला तो दूसरे ही दिन उठ गया होगा?
मर्यादा: रात-भर मैं स्त्रियों के साथ उसी शामियाने में रही।
परशुराम: अच्छा, तुमने मुझे तार क्यों न दिलवा दिया?
मर्यादा: मैंने समझा, जब यह लोग पहुंचाने की कहते ही हैं तो तार क्यों दूं?
परशुराम: खैर, रात को तुम वहीं रही। युवक बार-बार भीतर आते रहे होंगे?
मर्यादा: केवल एक बार एक सेवक भोजन के लिए पूछने आयास था, जब हम सबों ने खाने से इन्कार कर दिया तो वह चला गया और फिर कोई न आया। मैं रात-भर जगती रही।
परशुराम: यह मैं कभी न मानूंगा कि इतने युवक वहां थे और कोई अन्दर न गया होगा। समिति के युवक आकाश के देवता नहीं होत। खैर, वह दाढ़ी वाला अध्यक्ष तो जरूर ही देखभाल करने गया होगा?
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