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प्रेमचन्द की कहानियाँ 22

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9783

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग


जागेश्वरी– कितनी बदनामी होगी।

कैलाशकुमारी– अपने को भगवान् के चरणों पर अर्पण कर चुकी तो बदनामी क्या चिंता?

जागेश्वरी– बेटी, तुम्हें न हो, हमको तो है। हमें तो तुम्हारा ही सहारा है। तुमने जो संन्यास लिया तो हम किस आधार पर जियेंगे?

कैलाशकुमारी– परमात्मा ही सब का आधार है। किसी दूसरे प्राणी का आश्रय लेना भूल है।

दूसरे दिन यह बात मुहल्ले वालों के कानों में पहुँच गयी। जब कोई अवस्था असाध्य हो जाती है तो हम उस पर व्यंग करने लगते हैं। ‘यह तो होना ही था, नयी बात क्या हुई, लड़कियों को इस तरह स्वछंद नहीं कर दिया जाता, फूले न समाते थे कि लड़की ने कुल का नाम उज्जवल कर दिया। पुराण पढ़ती है, उपनिषद् और वेदांत का पाठ करती है, धार्मिक समस्याओं पर ऐसी-ऐसी दलीलें करती है कि बड़े-बड़े विद्वानों की ज़बान बंद हो जाती है तो अब क्यों पछताते हैं?’ भद्र पुरुषों में कई दिनों तक यही आलोचना होती रही। लेकिन जैसे अपने बच्चे के दौड़ते-दौड़ते धम से गिर पड़ने पर हम पहले क्रोध के आवेश में उसे झिड़कियाँ सुनाते हैं, इसके बाद गोद में बिठाकर आँसू पोंछते और फुसलाने का लगते हैं; उसी तरह इन भद्र पुरुषों ने व्यंग्य के बाद इस गुत्थी के सुलझाने का उपाय सोचना शुरू किया। कई सज्जन हृदयनाथ के पास आये और सिर झुकाकर बैठ गये। विषय का आरम्भ कैसे हो?

कई मिनट के बाद एक सज्जन ने कहा–सुना है डाक्टर गौड़ का प्रस्ताव आज बहुमत से स्वीकृत हो गया।

दूसरे महाशय बोले– यह लोग हिंदू-धर्म का सर्वनाश करके छोड़ेगें।

तीसरे महानुभाव ने फ़रमाया– सर्वनाश तो हो ही रहा है, अब और कोई क्या करेगा, जब हमारे साधु-महात्मा, जो हिंदू-जाति के स्तम्भ हैं, इतने पतित हो गये हैं कि भोली-भाली युवतियों को बहकाने में संकोच नहीं करते तो सर्वनाश होने में रह ही क्या गया।

हृदयनाथ– यह विपत्ति तो मेरे सिर ही पड़ी हुई है। आप लोगों को तो मालूम होगा।

पहले महाशय– आप ही के सिर क्यों, हम सभी के सिर पड़ी हुई है।

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