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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


राजा साहब अपने अनुभवशील, नीतिकुशल दीवान का बड़ा आदर करते थे। बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहब ने न माना, तो हारकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। पर शर्त यह लगा दी कि रियासत के लिए दीवान आप ही को खोजना पड़ेगा। दूसरे दिन देश के प्रसिद्ध पत्रों में से यह विज्ञापन निकाला कि देवगढ़ के लिए एक सुयोग दीवान की जरूरत है। जो सज्जन अपने को इस पद के योग्य समझें, वे वर्तमान दीवान सरदार सुजानसिंह की सेवा में उपस्थित हों। यह जरूरी नहीं कि वे ग्रेजुएट हों, मगर हृष्ट-पुष्ट होना आवश्यक है। मन्दाग्नि के मरीज को यहाँ तक कष्ट उठाने की कोई जरूरत नहीं। एक महीने तक उम्मीदवारों के रहन-सहन, आचार-विचार की देख-रेख की जायगी। विद्या का कम, परन्तु कर्त्तव्य का अधिक विचार किया जायगा। जो महाशय इस परीक्षा में पूरे उतरेंगे, वे इस उच्च पद पर सुशोभित होंगे।

इस विज्ञापन ने सारे मुल्क में हलचल मचा दी। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकार की कैद नहीं? केवल नसीब का खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखने के लिए चल खड़े हुए। देवगढ़ में नये-नये और रंग-बिरंगे मनुष्य दिखाई देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला उतरता। कोई पंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से; कोई नये फ़ैशन का प्रेमी, कोई पुरानी सादगी पर मिटा हुआ। पण्डितों और मौलवियों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर मिला। बेचारे सनद के नाम को रोया करते थे, यहाँ उसकी जरूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अँगरखे और कण्टोप देवगढ़ में अपनी सज-धज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटों की थी, क्योंकि सनद की कैद न होने पर भी सनद से परदा तो ढका रहता है।

सरदार सुजानसिंह ने इन महानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा प्रबन्ध कर दिया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था। मिस्टर ‘‘अ’’ नौ बजे दिन तक सोया करते थे। आजकल वे बगीचे में टहलते हुए उषा का दर्शन करते थे। मिस्टर ‘‘ब’’ को हुक्का पीने की लत थी, पर आजकल बहुत रात गए किवाड़ बन्द करके अँधेरे में सिगार पीते थे। मिस्टर ‘‘द’’, ‘‘स’’ और ‘‘ज’’ से उनके घरों पर नौकरों के नाक में दम था, लेकिन ये सज्जन आजकल ‘‘आप’’ और ‘‘जनाब’’ के बगैर नौकरों से बातचीत नहीं करते थे।

महाशय ‘‘क’’ नास्तिक थे, हक्सले के उपासक। मगर आजकल उनकी धर्मनिष्ठा देखकर मन्दिर के पुजारी को पदच्युत हो जाने की शंका लगी रहती थी। मिस्टर ‘‘ल’’ को किताबों से घृणा थी, परन्तु आजकल वे बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखने-पढ़ने में डूबे रहते थे। जिससे बात कीजिए वह नम्रता और सदाचार का देवता बना मालूम देता था। शर्माजी घड़ी रात से ही वेद-मन्त्र पढ़ने लगते थे और मौलवी साहब को तो नमाज और तलाबत के सिवा और कोई काम न था। लोग समझते कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है।

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