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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


इस तरह सजकर बंटी भोंदू की राह देखने लगी। जब अब भी वह न आया, तो उसका जी झुँझलाने लगा। रोज तो साँझ ही से द्वार पर पड़ रहते थे, आज न-जाने कहाँ जाकर बैठ रहे। शिकारी अपनी बंदूक भर लेने के बाद इसके सिवा और क्या चाहता है कि शिकार सामने आये। बंटी के सूखे ह्रदय में आज पानी पड़ते ही उसका नारीत्व अंकुरित हो गया। झुँझलाहट के साथ उसे चिन्ता भी होने लगी। उसने बाहर निकलकर कई बार पुकारा। उसके कंठस्वर में इतना अनुराग कभी न था। उसे कई बार भान हुआ कि भोंदू आ रहा है, वह हर बार सिरकी के अन्दर दौड़ आयी और आईने में सूरत देखी कि कुछ बिगड़ न गया हो। ऐसी धड़कन, ऐसी उलझन, उसकी अनुभूति से बाहर थी।

बंटी सारी रात भोंदू के इन्तजार में उद्विग्न रही। ज्यों-ज्यों रात बीतती थी, उसकी शंका तीव्र होती जाती थी। आज ही उसके वास्तविक जीवन का आरंभ हुआ था और आज ही यह हाल। प्रात:काल वह उठी, तो अभी कुछ अँधेरा ही था। इस रतजगे से उसका चित्त खिन्न और सारी देह अलसाई हुई थी। रह-रहकर भीतर से एक लहर भी उठती थी, आँखें भर-भर आती थीं। सहसा किसी ने कहा, 'अरे बंटी, भोंदू रात पकड़ गया।'

बंटी थाने पहुँची तो पसीने में तर थी और दम फूल रहा था। उसे भोंदू पर दया न थी, क्रोध आ रहा था। सारा जमाना यही काम करता है और चैन की बंसी बजाता है। उन्होंने कहते-कहते हाथ भी लगाया, तो चूक गये। नहीं सहूर था, तो साफ कह देते, मुझसे यह काम न होगा। मैं यह थोड़े ही कहती थी कि आग में फाँद पड़ो। उसे देखते ही थानेदार ने धौंस जमायी 'यही तो है भोंदुआ की औरत, इसे भी पकड़ लो।'

बंटी ने हेकड़ी जतायी 'हाँ-हाँ पकड़ लो, यहाँ किसी से नहीं डरते। जब कोई काम ही नहीं करते, तो डरे क्यों।'

अफसर और मातहत सभी की अनुरक्त आँखें बंटी की ओर उठने लगीं। भोंदू की तरफ से लोगों के दिल कुछ नर्म हो गये। उसे धूप से छाँह में बैठा दिया गया। उसके दोनों हाथ पीछे बँधे हुए थे और धूल-धूसरित काली देह पर भी जूतों और कोड़ों के रक्तमय मार साफ नजर आ रहे थे। उसने एक बार बंटी की ओर देखा, मानो कह रहा था 'देखना, कहीं इन लोगों के धोखे में न आ जाना।'

थानेदार ने डाँट बतायी 'ज़रा इसकी दीदा-दिलेरी देखो, जैसे देवी ही तो है; मगर इस फेर में न रहना। यहाँ तुम लोगों की नस-नस पहचानता हूँ। इतने कोड़े लगाऊँगा कि चमड़ी उड़ जायगी। नहीं तो सीधे से कबूल दो। सारा माल लौटा दो। इसी में खैरियत है।'

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