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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


शान्ता रोती हुई पिता की छाती से लिपट गई और यह समय से पहले बूढ़ा हो जाने वाला मनुष्य अपनी दुर्वासनाओं का दण्ड भोगने के बाद पश्चाताप और ग्लानि के आंसू बहा-बहाकर शान्ता क केशराशि को भिगोने लगा। पतिपरायणा प्रभा क्या शान्ता का अनुरोध टाल सकती थी? इस प्रेम-सूत्र ने दोनों भग्न-हृदय को सदैव के लिए मिला दिया।

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6. प्रेरणा

मेरी कक्षा में सूर्यप्रकाश से ज्यादा ऊधमी कोई लड़का न था, बल्कि यों कहो कि अध्यापन-काल के दस वर्षों में मुझे ऐसी विषम प्रकृति के शिष्य से साबका न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और चिढ़ाने, उद्योगी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ही उसे आनन्द आता था। ऐसे-ऐसे षड्यन्त्र रचता, ऐसे-ऐसे फंदे डालता, ऐसे-ऐसे बन्धन बाँधता कि देखकर आश्चर्य होता था। गिरोहबंदी में अभ्यस्त था।

खुदाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आतंक से शाला पर शासन करता था। मुख्य अधिष्ठाता की आज्ञा टल जाय, मगर क्या मजाल कि कोई उसके हुक्म की अवज्ञा कर सके। स्कूल के चपरासी और अर्दली उससे थर-थर काँपते थे।

इन्सपेक्टर का मुआयना होनेवाला था, मुख्य अधिष्ठाता ने हुक्म किया कि लड़के निर्दिष्ट समय से आधा घन्टा पहले आ जाएँ। मतलब था कि लड़कों को मुआयने के बारे में कुछ जरूरी बातें बता दी जाएँ; मगर दस बज गये, इन्सपेक्टर साहब आकर बैठ गये, और मदरसे में एक लड़का भी नहीं। ग्यारह बजे सब छात्र इस तरह निकल पड़े जैसे कोई पिंजरा खोल दिया गया हो।

इन्सपेक्टर साहब ने कैफियत में लिखा- डिसिप्लिन बहुत खराब है। प्रिंसिपल साहब की किरकिरी हुई, अध्यापक बदनाम हुए और यह सारी शरारत सूर्यप्रकाश की थी; बहुत पूछताछ करने पर भी किसी ने सूर्यप्रकाश का नाम तक न लिया। मुझे अपनी संचालन-विधि पर गर्व था। ट्रेनिंग कालेज में इस विषय में मैंने ख्याति प्राप्त की थी; मगर यहाँ मेरा सारा संचालन-कौशल जैसे मोरचा खा गया था। कुछ अक्ल ही काम न करती कि शैतान को कैसे सन्मार्ग पर लायें। कई बार अध्यापकों की बैठक हुई; पर यह गिरह न खुली।

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