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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


इस बेचारे का यहाँ मेरे सिवा दूसरा कौन है! मेरे चंचल मित्रों में से कोई उसे चिढ़ाता या छेड़ता, तो मेरी त्योरियाँ बदल जाती थीं। कई लड़के तो मुझे बूढ़ी दाई कह कर चिढाते थे; पर मैं हँसकर टाल देता था। मैं उसके सामने एक अनुचित शब्द भी मुँह से न निकालता। यह शंका होती थी कि कहीं मेरी देखादेखी यह भी खराब न हो जाए। मैं उसके सामने इस तरह रहना चाहता था कि वह मुझे अपना आदर्श समझे और इसके लिए यह मानी हुई बात थी कि मैं अपना-चरित्र सुधारूँ। वह मेरा नौ बजे सोकर उठना, बारह बजे तक मटरगश्ती करना, नयी-नयी शरारतों के मंसूबे बाँधना और अध्यापकों की आँख बचा कर स्कूल से उड़ जाना, सब आप ही  आप जाता रहा।

स्वास्थ्य और चरित्र-पालन के सिद्धांतों का मैं शत्रु था; पर अब मुझसे बढ़कर उन नियमों का रक्षक दूसरा न था। मैं ईश्वर का उपहास किया करता था, मगर अब पक्का आस्तिक हो गया था। वह बड़े सरल भाव से पूछता, परमात्मा सब जगह रहते हैं, तो मेरे पास भी रहते होंगे। इस प्रश्न का मजाक उड़ाना मेरे लिए असम्भव था। मैं कहता- हाँ, परमात्मा तुम्हारे, हमारे, सबके पास रहते हैं और रक्षा करते हैं। यह आश्वासन पाकर उसका चेहरा आनंद से खिल उठता था। कदाचित वह परमात्मा की सत्ता का अनुभव करने लगता था। साल भर में मोहन कुछ से कुछ हो गया। मामा साहब दुबारा आये, तो उसे देखकर चकित हो गए। आँखों में आँसू भरकर बोले- बेटा! तुमने इसको जिला लिया नहीं तो मैं निराश हो चुका था। इसका पुनीत फल तुम्हें ईश्वर देंगे इसकी माँ स्वर्ग में बैठी हुई तुम्हें आशीर्वाद दे रही है।

सूर्यप्रकाश की आँखें उस वक्त सजल हो गई थीं।

मैंने पूछा- मोहन भी तुम्हें बहुत प्यार करता होगा?

सूर्यप्रकाश के सजल नेत्रों में हसरत से भरा हुआ आनंद चमक उठा, बोला- वह मुझे एक मिनट के लिए भी न छोड़ता था। मेरे साथ बैठता मेरे साथ खाता, मेरे साथ सोता। मैं ही उसका सब कुछ था। आह! वह संसार में नहीं है; मगर मेरे लिए वह अब भी उसी तरह जीता जागता है। मैं जो कुछ हूँ, उसी का बनाया हुआ हूँ। अगर वह दैवी विधान की भाँति मेरा पथ-प्रदर्शक न बन जाता, तो शायद आज मैं किसी जेल में पड़ा होता। एक दिन मैंने कह दिया था- अगर तुम रोज नहा न लिया करोगे, तो मैं तुमसे न बोलूँगा। नहाने से वह जाने क्यों जी चुराता था। मेरी इस धमकी का फल यह हुआ कि वह प्रातःकाल नहाने लगा। कितनी ही सर्दी क्यों न हो, कितनी ही ठण्डी हवा चले, लेकिन वह स्नान अवश्य करता था। देखता रहता था, मैं किस बात से खुश होता हूँ।

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