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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


मगर मैं यह दुःख-कहानी कहकर मैं रोना रुलाना नहीं चाहता। मेरे चले जाने के बाद मोहन इतने परिश्रम से पढ़ने लगा, मानो तपस्या कर रहा हो। उसे यह धुन सवार हो गई कि साल भर की पढ़ाई दो महीने में समाप्त कर ले। और स्कूल खुलने के बाद मुझसे इस श्रम का प्रशंसारूपी उपहार प्राप्त करे। मैं किस तरह उसकी पीठ ठोकूँगा और शाबाशी दूँगा, अपने मित्रों से उसका बखान करूँगा, इन भावनाओं ने अपने सारे बालोचित उत्साह और तल्लीनता के साथ उसे वशीभूत कर लिया। मामा जी को दफ्तर के कामों में इतना अवकाश कहाँ कि उसके मनोरंजन का ध्यान रखें। शायद  उसे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ पढ़ते देखकर वह दिल में खुश होते थे। उसे खेलते देखकर वह जरूर डाँटते। पढ़ते देख कर भला क्या कहते? फल यह हुआ कि मोहन को हल्का-हल्का ज्वर आने लगा; किंतु उस दशा में भी उसने पढ़ना न छोड़ा। कुछ और व्यतिक्रम भी हुए, ज्वर का प्रकोप और भी बढ़ा; पर उस दशा में भी जब ज्वर कुछ हल्का हो जाता, तो किताबें देखने लगता था। उसके प्राण मुझमें ही बसे रहते थे। ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता- भैया का पत्र आया? वह कब आएँगे? इसके सिवा और कोई अभिलाषा न थी। अगर मुझे मालूम होता कि मेरी कश्मीर यात्रा इतनी महँगी पड़ेगी, तो उधर जाने का नाम भी न लेता। उसे बचाने के लिए मुझसे जो कुछ हो सकता था। वह मैंने सब किया; किंतु बुखार टायफाइड था, उसकी जान लेकर ही उतरा। उसके जीवन के स्वप्न मेरे लिए किसी ऋषि के आशीर्वाद बनकर मुझे प्रोत्साहन करने लगे और यह उसी का शुभ फल है कि आज आप मुझे इस दशा में देख रहे हैं। मोहन की बाल-अभिलाषाओं को प्रयत्क्ष रूप में लाकर मुझे यह संतोष होता है कि शायद उसकी पवित्र आत्मा मुझे देखकर प्रसन्न होती हो। यही प्रेरणा थी, जिसने कठिन परीक्षाओं में भी बेड़ा पार लगाया; नहीं तो मैं आज भी वही मंदबुद्धि सूर्यप्रकाश हूँ, जिसकी सूरत से आप चिढ़ते थे।

उस दिन से मैं कई बार सूर्यप्रकाश से मिल चुका हूँ। वह जब इस तरफ आ जाता है, तो बिना मुझसे मिले नहीं जाता। मोहन को अब भी वह अपना इष्टदेव समझता है। मानव-प्रकृति का एक ऐसा रहस्य है, जिसे मैं आज तक नहीं समझ सका।

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7. फातिहा

सरकारी अनाथालय से निकालकर मैं सीधा फौज में भरती किया गया। मेरा शरीर हृष्ट-पुष्ट और वलिष्ट था। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा मेरे हाथ-पैर कहीं लम्बे और स्नायु युक्त थे। मेरी लम्बाई पूरी छः फीट नौ इंच थी। पलटन में मैं ‘देव’ नाम से विख्यात था। जब से मैं फौज में भरती हुआ, तब से मेरी किस्मत ने पलटा खाना शुरू किया और मेरे हाथ से कई ऐसे काम हुए जिनसे प्रतिष्ठा के साथ-साथ मेरी आय भी बढ़ती गयी। पटलन का हर एक जवान मुझे जानता था। मेजर सरदार हिम्मतसिंह की कृपा मेरे ऊपर बहुत थी, क्योंकि मैंने एक बार उनकी प्राण रक्षा की थी। इसके अतिरिक्त न जाने क्यों उनको देख हृदय में भक्ति और श्रद्वा का संचार होता था। मैं यही समझता कि यह मेरे पूज्य हैं, और सरदार साहब का भी व्यवहार मेरे साथ स्नेह युक्त और मित्रतापूर्ण था।

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