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प्रेमचन्द की कहानियाँ 25

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9786

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पच्चीसवाँ भाग


मैंने उठते हुए कहा- सरदार साहब, यहाँ तबीयत नहीं लगती, उठकर बरामदे में बैठिये; न मालूम क्यों मेरा दिल घबड़ाता है।

सरदार साहब उठकर मेरे पास आये और स्नेह से मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा- असद, तुम दौड़ते-दौड़ते थक गये हो, और कोई बात नहीं है। अच्छा चलो, बरामदे में बैठें। शाम की ठंडी हवा तुम्हें ताजा कर देगी।

सरदार साहब और मैं; दोनों बरामदे में जाकर कुर्सियों पर बैठ गये। शहर के चौमुहाने पर उसी वृद्ध की लाश रक्खी थी, और उसके चारों ओर भीड़ लगी हुई थी। बरामदे में जब मुझे बैठे हुए देखा, तो लोग मेरी ओर इशारा करने लगे। सरदार साहब ने यह दृश्य देखकर कहा- असदखाँ, देखो, लोगों की निगाहों में तुम कितने ऊँचे हो। तुम्हारी वीरता को यहाँ का बच्चा-बच्चा सराहता है। अब भी तुम कहते हो कि मैं बुजदिल हूँ?

मैंने मुस्करा के कहा- जब से इस बुड्ढे को मारा है, तब से मेरा दिल मुझे धिक्कार रहा है।

सरदार साहब ने हँसकर कहाँ- क्यों तुमने अपने से निर्बल को मारा है?

मैंने अपनी दिलजमई करते हुए कहा- मुमकिन है ऐसा ही हो।

इसी समय एक अफ्रीदी रमणी धीरे-धीरे आकर सरदार साहब के मकान के सामने खड़ी हो गयी। ज्योंही सरदार साहब ने देखा; उनका मुँह सफेद पड़ गया। उनकी भयभीत दृष्टि उनकी ओर से फिरकर मेरी ओर हो गयी! मैं भी आश्चर्य से उसके मुँह की ओर निहारने लगा। उस रमणी का-सा सुगठित शरीर मरदों का भी कम होता है। खाकी रंग के मोटे कपड़े का पायजामा और नीले रंग का मोटा कुरता पहने हुए थी। बलूची औरतों की तरह सिर पर रुमाल बाँध रक्खा था। रंग चम्पई था और यौवन की आभा फूट-फूटकर बाहर निकली पड़ती थी, इस समय उसकी आँखों में ऐसी भीषणता थी, किसी के दिल में भय का संचार करती। रमणी की आंखें सरदार साहब की ओर से फिरकर मेरी ओर आईं और उसने यों घूरना शुरू किया कि मैं भी भयभीत हो गया। रमणी ने सरदार साहब की ओर देखा और फिर जमीन पर थूक दिया और देखती हुई धीरे-धीरे दूसरी ओर चली गई।

रमणी को जाते देखकर सरदार साहब की जान-में-जान आई। मेरे सिर पर से भी एक बोझ हट गया।

मैंने सरदार साहब से पूछा- क्यों, क्या आप इसे जानते हैं?

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