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प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


मेरा जी पढ़ने में बिलकुल न लगता था। एक घंटा भी किताब लेकर बैठना पहाड़ था। मौका पाते ही होस्टल से निकलकर मैदान में आ जाता और कभी कंकरियां उछालता, कभी कागज की तितलियाँ उडाता, और कहीं कोई साथी मिल गया तो पूछना ही क्या कभी चारदीवारी पर चढकर नीचे कूद रहे हैं, कभी फाटक पर सवार, उसे आगे-पीछे चलाते हुए मोटरकार का आनंद उठा रहे है। लेकिन कमरे में आते ही भाई साहब का रौद्र रूप देखकर प्राण सूख जाते। उनका पहला सवाल होता- 'कहां थे? हमेशा यही सवाल, इसी ध्वनि में पूछा जाता था और इसका जवाब मेरे पास केवल मौन था। न जाने मुंह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था। मेरा मौन कह देता था कि मुझे अपना अपराध स्वीकार है और भाई साहब के लिए इसके सिवा और कोई इलाज न था कि रोष से मिले हुए शब्दों में मेरा सत्कार करें।

‘इस तरह अंग्रेजी पढोगे, तो जिन्दगी-भर पढ़ते रहोगे और एक हर्फ न आएगा। अँगरेजी पढना कोई हंसी-खेल नहीं है कि जो चाहे पढ़ ले, नहीं तो ऐरा-गैरा नत्थू-खैरा सभी अंगरेजी के विद्धान हो जाते। यहां रात-दिन आंखें फोडनी पड़ती हैं और खून जलाना पडता है, जब कहीं यह विद्या आती है। और आती क्या है, हां, कहने को आ जाती है। बडे-बडे विद्धान भी शुद्ध अंगरेजी नहीं लिख सकते, बोलना तो दूर रहा। और मैं कहता हूं, तुम कितने घोंघा हो कि मुझे देखकर भी सबक नहीं लेते। मैं कितनी मेहनत करता हूं, तुम अपनी आंखो देखते हो, अगर नहीं देखते, तो यह तुम्हारी आंखों का कसूर है, तुम्हारी बुद्धि का कसूर है। इतने मेले-तमाशे होते हैं, मुझे तुमने कभी देखने जाते देखा है, रोज ही क्रिकेट और हाकी मैच होते हैं। मैं पास नहीं फटकता। हमेशा पढ़ता रहा हूं, उस पर भी एक-एक दरजे में दो-दो, तीन-तीन साल पड़ा रहता हूं फिर तुम कैसे आशा करते हो कि तुम यों खेल-कूद में वक्त गंवाकर पास हो जाओगे? मुझे तो दो-ही-तीन साल लगते हैं, तुम उम्र-भर इसी दरजे में पड़े सड़ते रहोगे। अगर तुम्हें इस तरह उम्र गंवानी है, तो बेहतर है, घर चले जाओ और मजे से गुल्ली-डंडा खेलो। दादा की गाढ़ी कमाई के रुपये क्यों बरबाद करते हो?'

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