लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचन्द की कहानियाँ 26

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9787

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

153 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छब्बीसवाँ भाग


उनके नाम उसकी जिह्वा पर उसी तरह आते थे, जिस तरह अपने तीनों बच्चों के। कोई चौबीसो था, कोई बाईसो था, कोई नालबेला, कोई तलैयावाला। इन नामों के स्मरण होते ही खेतों का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच जाता था। वह इन खेतों की चर्चा इस तरह करता, मानो वे सजीव हैं। मानो उसके भले-बुरे के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाएँ, सारी इच्छाएँ, सारे मनसूबे, सारी मिठाइयाँ, सारे हवाई किले, इन्हीं खेतों पर अवलम्बित थे। इनके बिना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था। और वे ही अब हाथ से निकले जाते हैं। वह घबराकर घर से निकल जाता और घंटों खेतों की मेड़ों पर बैठा हुआ रोता, मानो उनसे विदा हो रहा है। इस तरह एक सप्ताह बीत गया और गिरधारी रुपये का कोई बंदोबस्त न कर सका। आठवें दिन उसे मालूम हुआ कि कालिकादीन ने 100 रुपये नजराने देकर 10 रुपये बीघे पर खेत ले लिये। गिरधारी ने एक ठंडी साँस ली। एक क्षण के बाद वह अपने दादा का नाम लेकर बिलख-बिलखकर रोने लगा। उस दिन घर में चूल्हा नहीं जला। ऐसा मालूम होता था, मानो हरखू आज ही मरा है।

लेकिन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। वह क्रोध से भरी हुई कालिकादीन के घर गयी और उसकी स्त्री को खूब लथेड़ा- कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले हैं। देखें, कौन मेरे खेत में हल ले जाता है? अपना और उसका लोहू एक कर दूँ।

पड़ोसिन ने उसका पक्ष लिया- सच तो है, आपस में यह चढ़ा-ऊपरी नहीं चाहिए। नारायण ने धन दिया है, तो क्या गरीबों को कुचलते फिरेंगे?

सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार लिया। उसका चित्त बहुत शांत हो गया। किन्तु वही वायु, जो पानी में लहरें पैदा करती हैं, वृक्षों को जड़ से उखाड़ डालती है। सुभागी तो पड़ोसियों की पंचायत में अपने दुखड़े रोती और कालिकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती।

इधर गिरधारी अपने द्वार पर बैठा हुआ सोचता, अब मेरा क्या हाल होगा? अब यह जीवन कैसे कटेगा? ये लड़के किसके द्वार पर जाएँगे? मजदूरी का विचार करते ही उसका हृदय व्याकुल हो जाता। इतने दिनों तक स्वाधीनता और सम्मान का सुख भोगने के बाद अधम चाकरी की शरण लेने के बदले वह मर जाना अच्छा समझता था। वह अब तक गृहस्थ था, उसकी गणना गाँव के भले आदमियों में थी, उसे गाँव के मामले में बोलने का अधिकार था। उसके घर में धन न था, पर मान था। नाई, कुम्हार, पुरोहित, भाट, चौकीदार ये सब उसका मुँह ताकते थे। अब यह मर्यादा कहाँ? अब कौन उसकी बात पूछेगा? कौन उसके द्वार आएगा? अब उसे किसी के बराबर बैठने का, किसी के बीच में बोलने का हक नहीं रहा। अब उसे पेट के लिए दूसरों की गुलामी करनी पड़ेगी। अब पहर रात रहे, कौन बैलों को नाँद में लगाएगा। वह दिन अब कहां, जब गीत गाकर हल चलाता था। चोटी का पसीना एड़ी तक आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी। अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर फूला न समाता था। खलिहान में अनाज का ढेर सामने रखे हुए अपने को राजा समझता था। अब अनाज को टोकरे भर-भरकर कौन लाएगा? अब खेती कहाँ? बखार कहाँ?

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book