कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
मगर दोपहर ढली जा रही थी, अधिक सोच-विचार का अवकाश न था। यहीं सन्ध्या हो गई, तो रात को लौटना असम्भव हो जायगा। फिर रोगियों की न जाने क्या दशा हो, कितना ही अपमान सहना पड़े, भिक्षा के सिवा और कोई उपाय न था।
वह बाजार में जाकर एक दुकान के सामने खड़े हो गए। पर कुछ माँगने की हिम्मत न थी।
दूकानदार ने पूछा- क्या लोगे?
पंडितजी बोले- चावल का क्या भाव है?
मगर दूसरी दूकान पर पहुँचकर वह ज्यादा सावधान हो गए। सेठजी गद्दी पर बैठे हुए थे। पंडितजी आकर उनके सामने खड़े हो गये, और गीता का एक श्लोक पढ़ सुनाया। उनका शुद्व उच्चारण और मधुर वाणी सुनकर सेठजी चकित हो गए, पूछा- कहाँ स्थान है?
पड़ित–काशी से आ रहा हूँ।
यह कहकर पंडित जी ने सेठजी से धर्म के दसों लक्षण बतलाए, और श्लोक की ऐसी अच्छी व्याख्या की कि मुग्ध हो गया। बोला महाराज, आज चलकर मेरे स्थान को पवित्र कीजिए।
कोई स्वार्थी आदमी होता, तो इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेता, लेकिन पंडित जी को तो लौटने की पड़ी थी। बोले- नहीं सेठजी, मुझे अवकाश नहीं है।
सेठ- महाराज, आपको हमारी इतनी खातिर करनी पड़ेगी।
पंडित जी जब किसी तरह ठहरने पर राजी न हुए तो सेठजी ने उदास होकर कहा- फिर आपकी क्या सेवा करें? कुछ आज्ञा दीजिए। आपकी वाणी से तो तृप्ति नहीं हुई। फिर कभी इधर आना हो, तो अवश्य दर्शन दीजिएगा।
पंडित- आपकी इतनी श्रद्वा है, तो अवश्य आऊँगा।
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