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प्रेमचन्द की कहानियाँ 29

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9790

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग


मुल्लाओं ने मैदान खाली पाकर आस-पास के देहातों में खूब जोर बाँध रखा था। गाँव के गाँव मुसलमान होते जाते थे। उधर हिंदू सभा ने सन्नाटा खींच लिया था। किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि इधर आये। लोग दूर बैठे हुए मुसलमानों पर गोला बारूद चला रहे थे। इस हत्या का बदला कैसे लिया जाय, यही उनके आगे सबसे बड़ी समस्या थी। अधिकारियों के पास बार-बार प्रार्थना-पत्र भेजे जा रहे थे कि इस मामले की छान-बीन का जाए, यही जवाब मिलता था कि हत्याकारियों का पता नहीं चलता। उधर पंडितजी के स्मारक के लिए चंदा भी जमा किया जा रहा था।

मगर इस नयी ज्योति ने मुल्लाओं का रंग फीका कर दिया। यहाँ एक ऐसे देवता का अवतार हुआ था, जो मुर्दों को जिला देता था, जो अपने भक्तों के कल्याण के लिए अपने प्राणों को बलिदान कर सकता था। मुल्लाओं के यहाँ यह विभूति कहाँ, यह चमत्कार कहाँ? इस ज्वलंत उपकार के सामने जन्नत और अखूवत (भ्रातभाव) की कोरी दलीलें कब ठहर सकती थीं? पंडितजी अब वह अपने ब्राह्मणत्व पर घमंड करने वाले पंडितजी न थे। उन्होंने शूद्रों और भीलों का आदर करना सीख लिया था। उन्हें छाती से लगाते हुए अब पंडित जी को घृणा न होती थी। अपना घर अँधेरा पाकर ही ये इस्लामी दीपक की ओर झुके थे। जब अपने घर में सूर्य का प्रकाश हो गया, तो इन्हें दूसरों के यहाँ जाने की क्या जरूरत थी? सनातन धर्म की विजय हो गई। गाँव-गाँव में मंदिर बनने लगे और शाम-सबेरे मंदिरों से शंख और घंटे की ध्वनि सुनाई देने लगी। लोगों के आचरण आप ही आप सुधरने लगे। पंडितजी ने किसी को शुद्ध नहीं किया, उन्हें अब शुद्धि का नाम लेते शर्म आती थी - मैं भला इन्हें क्या शुद्ध करूँगा। पहले अपने को तो शुद्ध कर लूँ। ऐसी निर्मल, पवित्र आत्माओं को शुद्धि के ढोंग से अपमानित नहीं कर सकता।

यही मंत्र था, जो उन्होंने उन चंडालों से सीखा था और इसी के बल से वह अपने धर्म की रक्षा करने में सफल हुए थे।

पंडित जी अभी जीवित हैं; पर अब सपरिवार उसी प्रांत में, उन्हीं भीलों के साथ रहते हैं।

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5. मंत्र-2

संध्या का समय था। डाक्टर चड्ढा गोल्फ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर द्वार के सामने खड़ी थी कि दो कहार एक डोली लिये आते दिखायी दिये। डोली के पीछे एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आता था। डोली औषाधालय के सामने आकर रुक गयी। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई चिक से झॉँका। ऐसी साफ-सुथरी जमीन पर पैर रखते हुए भय हो रहा था कि कोई घुड़क न बैठे। डाक्टर साहब को खड़े देख कर भी उसे कुछ कहने का साहस न हुआ। डाक्टर साहब ने चिक के अंदर से गरज कर कहा- कौन है? क्या चाहता है?

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