कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
उत्सव समाप्त हो चुका था। चौधरी साहब दीवानखाने में बैठे हुए हुक्का पी रहे थे। उनका मुख लाल था, त्यौंरियां चढ़ी हुईं थीं, और आंखों से चिनगारियां-सी निकल रहीं थीं। ‘खुदा का घर’ नापाक किया गया। यह ख्याल रह-रहकर उनके कलेजे को मसोसता था। खुदा का घर नापाक किया गया! जालिमों को लड़ने के लिए क्या नीचे मैदान में जगह न थी! खुदा के पाक घर में यह खून-खच्चर! मुसजिद की यह बेहुरमती! मन्दिर भी खुदा का घर है और मसजिद भी। मुसलमान किसी मन्दिर को नापाक करने के लिए सजा के लायक हैं, क्या हिन्दू मसजिद को नापाक करने के लिए उसी सजा के लायक नहीं? और यह हरकत ठाकुर ने की! इसी कसूर के लिए तो उसने मेरे दामाद को कत्ल किया। मुझे मालूम होता है कि उसके हाथों ऐसा फेल होगा, तो उसे फांसी पर चढ़ने देता। क्यों उसके लिए इतना हैरान, इतना बदनाम, इतना जेरबार होता। ठाकुर मेरा वफादार नौकर है। उसने बारहा मेरी जान बचाई है। मेरे पसीने की जगह खून बहाने को तैयार रहता है। लेकिन आज उसने खुदा के घर को नापाक किया है, और उसे इसकी सजा मिलनी चाहिए। इसकी सजा क्या है? जहन्नुम! जहन्नुम की आग के सिवा इसकी और कोई सजा नहीं है। जिसने खुदा के घर को नापाक किया, उसने खुदा की तौहीन की। खुदा की तौहीन!
सहसा ठाकुर भजनसिंह आकर खड़े हो गए। चौधरी साहब ने ठाकुर को क्रोधोन्मत्त आंखों से देखकर कहा- तुम मसजिद में घुसे थे?
भजनसिंह- सरकार, मौलवी लोग हम लोगों पर टूट पड़े।
चौधरी- मेरी बात का जवाब दो जी—तुम मसजिद में घुसे थे?
भजनसिंह- जब उन लोगों ने मसजिद के भीतर से हमारे ऊपर पत्थर फेंकना शुरू किया तब हम लोग उन्हें पकड़ने के लिए मसजिद में घुस गए।
चौधरी- जानते हो मसजिद खुदा का घर है?
भजनसिंह- जानता हूं हुजूर, क्या इतना भी नहीं जानता।
चौधरी- मसजिद खुदा का वैसा ही पाक घर है, जैसे मंदिर।
भजनसिंह ने इसका कुछ जवाब न दिया।
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