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प्रेमचन्द की कहानियाँ 30

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9791

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग


प्रभा ने तकिए के नीचे से एक चमकती हुई कटार निकाली। उसके हाथ काँप रहे थे। उसने कटार की तरफ़ आँखें जमाई। हृदय को उसके अभिवादन के लिए मजबूत किया। हाथ उठाया किंतु न उठा; आत्मा दृढ़ न थी। आँखें झपक गई। सिर में चक्कर आ गया। कटार हाथ से छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ी।

प्रभा क्रुद्ध होकर सोचने लगी- क्या मैं वास्तव में निर्लज्ज हूँ? मैं राजपूतनी होकर मरने से डरती हूँ मान-मर्यादा खोकर बेहया लोग ही जिया करते हैं। वह कौन-सी आकांक्षा है, जिसने मेरी आत्मा को इतना निर्बल बना रखा है? क्या राणा की मीठी-मीठी बातें? राणा मेरे शत्रु हैं। उन्होंने मुझे पशु समझ रखा है, जिसे फँसाने के पश्चात् हम पिंजरे में बंद करके हिलाते हैं। उन्होंने मेरे मन को अपनी वाक्य-मधुरता का क्रीड़ा-स्थल समझ लिया है। वे इस तरह घुमा-घुमा कर बातें करते हैं और मेरी तरफ़ से उक्तियाँ निकालकर उनका ऐसा उत्तर देते हैं कि मेरी ज़बान ही बंद हो जाती है। हाय! निर्दयी ने मेरा जीवन नष्ट कर दिया और मुझे यों खेलाता है। क्या इसीलिए जीऊँ कि उसके कपट भावों का खिलौना बनूँ?

फिर वह कौन-सी अभिलाषा है। क्या राजकुमार का प्रेम? उसकी तो अब कल्पना ही मेरे लिए घोर पाप है। मैं अब उस देवता के योग्य नहीं हूँ। प्रियतम! बहुत दिन हुए मैंने तुमको हृदय से निकाल दिया। तुम भी मुझे दिल से निकाल डालो। मृत्यु के सिवाय अब कहीं मेरा ठिकाना नहीं है। शंकर! मेरी निर्बल आत्मा को शक्ति प्रदान करो। मुझे कर्तव्य पालन का बल दो।

प्रभा ने फिर कटार निकानी। इच्छा दृढ़ थी। हाथ उठा और निकट था कि कटार उसके शोकातुर हृदय में चुम जाए कि इतने में किसी के पाँव की आहट सुनाई दी। उसने चौंककर सहमी हुई दृष्टि से देखा। मंदारकुमार धीरे-धीरे पैर दबाता हुआ कमरे में दाखिल हुआ।

प्रभा उसे देखते ही चौंक पड़ी। उसने कटार को छिपा लिया। राजकुमार को देखकर उसे आनंद की जगह रोमांचकारी भय उत्पन्न हुआ। यदि किसी को जरा भी संदेह हो गया तो इनका प्राण बचना कठिन है। इनको तुरत यहाँ से निकल जाना चाहिए। यदि इन्हें बातें करने का अवसर दूँ तो विलंब होगा और फिर ये अवश्य ही फँस जाएँगे। राणा इन्हें कदापि न छोड़ेंगे। ये विचार वायु और बिजली की व्यग्रता के साथ उसके मस्तिष्क में दौड़े। वह तीव्र स्वर से बोली- ''भीतर मत आओ!''

राजकुमार ने पूछा- ''मुझे पहचाना नहीं?''

प्रभा- ''खूब पहिचान लिया, किंतु यह बातें करने का समय नहीं है। राणा तुम्हारी घात में है। अभी यहाँ से चले जाओ।''

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