कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
चम्पा, "अरे बीबी! रहने दो, क्यों झूठ बोलती हो। तुमने दस बार ही तो पुकारा और पचास बार कहती हो। तुमने ही तो कहा था कि महीना बन्द हो जाय तो हम निकाल देंगे, और आज पहली तारीख है। अब मैं क्यों बोलूँ।"
देवीजी गुस्से से आग होकर चली आईं। चम्पा उत्तर देने में बिजली, बेचारी पर्दे में रहने वाली देवीजी चुप होकर मेरे कारण गुस्सा पी जाती और मुझसे कुछ न कहतीं। मेरा कमरा भली प्रकार साफ न होता और यदि वे कुछ कहतीं तो वह कहती कि कौन बड़ा साफ कमरा है। एक दिन चम्पा ने चीनी मिट्टी के गुलदान तोड़ डाले। देवीजी ने पूछा तो कहा, "लड़कों ने तोड़े हैं।"
देवीजी, "लड़के इनको कभी नहीं छूते।"
चम्पा, "तो साहब मैंने ही तोड़े। मुझे कब कहा था कि गुलदान न तोड़ें। शीशे के बर्तनों को कहा था, सो आज तक एक भी नहीं टूटा है। जो काम करेगा उससे टूट-फूट भी होगी। गुलदान पुराने तो थे। आपको नौकर नहीं रखना है, बेकार झूठे आरोप लगाती हैं।"
जब शाम को मैं पहुँचा तो कहा, "हाँ सरकार, खता हो गई। साफ करने पर एक दूसरे पर गिर गया और टूट गए।"
मैं यथासम्भव प्रसन्न रहने का प्रयत्न करता हूँ। क्या करूँ, दिन-भर दफ्तर की हाय-हाय, शाम से घर की परेशानियाँ। एक दिन मैंने कहा कि, "चम्पा, मेरे जूते में एक कील निकल आई है, उसको किसी चीज से ठोक दे।"
वह चुप रही। शायद मन में यह सोचती रही होगी कि जिस समय नौकर रखा था उस समय यह नहीं कहा था कि यह काम भी उसी के जिम्मे होगा। शायद इसी विचार से उसने उसमें हाथ तक नहीं लगाया। मुझे सुबह को कील वैसी ही मिली तो मैंने उससे पूछा कि तूने कल शाम को जो कील दबाई थी वह रात में फिर निकल आई। तो वह उत्तर देती है, "बाबू, जूते पुराने हैं, कहाँ तक चलें। इनको बदल डालो और अच्छे दाम के जूते ले लो कि कुछ चलें।"
इस भाँति जब मेरी नाक में दम आ गया तो मैंने उसे निकाल दिया और फिर कोई महरी न रखी। इस प्रकार खोया हुआ चैन आप ही आप मिल गया। सच है, अब नौकरों का समय नहीं रहा, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपना सर्वश्रेष्ठ नौकर है।
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