कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 32 प्रेमचन्द की कहानियाँ 32प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बत्तीसवाँ भाग
देवकी ने भर्त्सनापूर्ण नेत्रों से देखकर कहा- अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना कोई तुमसे सीख ले!
जिस तरह मां अपने बेटे को हमेशा दुबला ही समझती है, उसी तरह बाप बेटे को हमेशा नादान समझा करता है। यह उनकी ममता है, बुरा मानने की बात नहीं है। हरिदास ने लज्जित होकर सर झुका लिया। दूसरे रोज दीनानाथ उनको देखने के बहाने से लाला हरनामदास की सेवा में उपस्थित हुआ। लालाजी उसे देखते ही तकिये के सहारे उठ बैठे और पागलों की तरह बेचैन होकर पूछा- क्यों, कारबार सब तबाह हो गया कि अभी कुछ कसर बाकी है! तुम लोगों ने मुझे मुर्दा समझ लिया है। कभी बात तक न पूछी। कम से कम मुझे ऐसी उम्मीद न थी। बहू ने मेरी तीमारदारी ने की होती तो मर ही गया होता।
दीनानाथ- आपका कुशल-मंगल रोज बाबू साहब से पूछ लिया करता था। आपने मेरे साथ जो नेकियां की हैं, उन्हें मैं भूल नहीं सकता। मेरा एक-एक रोआं आपका एहसानमन्द है। मगर इस बीच काम ही कुछ एकस था कि हाज़िर होने की मोहलत न मिली।
हरनामदास- खैर, कारखाने का क्या हाल है? दीवाला होने में क्या कसर बाकी है?
दीनानाथ ने ताज्जुब के साथ कहा- यह आपसे किसने कह दिया कि दीवाला होनेवाला है? इस अरसे में कारोबार में जो तरक्की हुई है, वह आप खुद अपनी आंखों से देख लेंगे।
हरनामदास व्यंग्यपूर्वक बोले- शायद तुम्हारे बाबू साहब ने तुम्हारी मनचाही तरक्की कर दी! अच्छा अब स्वामिभक्ति छोड़ो और साफ बतलाओ। मैंने ताकीद कर दी थी कि कारखाने का इन्तज़ाम तुम्हारे हाथ में रहेगा। मगर शायद हरिदास ने सब कुछ अपने हाथ में रखा।
दीनानाथ- जी हां, मगर मुझे इसका जरा भी दुख नहीं। वही इस काम के लिए ठीक भी थे। जो कुछ उन्होंने कर दिखाया, वह मुझसे हरगिज न हो सकता।
हरनामदास- मुझे यह सुन-सुनकर हैरत होती है। बतलाओ, क्या तरक्की हुई?
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