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प्रेमचन्द की कहानियाँ 33

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9794

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तैंतीसवाँ भाग


अतएव नए वर्ष के पदार्पण करते ही उन्होंने कानून की पुस्तकें संग्रह कीं, पाठ्य-क्रम निश्चित किया, रोजनामचा लिखने लगे, और अपने चंचल और बहानेबाज चित्त को चारों ओर से जकड़ा, मगर चटपटे पदार्थों का आस्वादन करने के बाद सरल भोजन कब रुचिकर होता है? कानून में वे घातें कहाँ, वह उन्माद कहाँ, वे चोटें कहाँ, वह उत्तेजना कहाँ, वह हलचल कहाँ? बाबू साहब अब नित्य एक खोयी हुई दशा में रहते। जब तक अपने इच्छानुकूल काम करते थे, चौबीस घंटों में घंटे-दो-घंटे कानून भी देख लिया करते थे। उस नशे ने मानसिक शक्तियों को शिथिल कर दिया। स्नायु निर्जीव हो गए। उन्हें ज्ञात होने लगा कि अब मैं कानून के लायक नहीं रहा, और इस ज्ञान के कानून के प्रति उदासीनता का रूप धारण किया। मन में संतोषवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारब्ध और पूर्व-संस्कार के सिद्धान्तों की शरण लेने लगे।

एक दिन मानकी ने कहा- यह क्या बात है? क्या कानून से फिर जी उचाट हुआ?

ईश्वरचंद्र ने दुस्साहस-पूर्ण भाव से उत्तर दिया- हाँ, भई, मेरा जी उससे भागता है।

मानकी ने व्यंग्य से कहा- बहुत कठिन है?

ईश्वरचंद्र- कठिन नहीं है, और कठिन भी होता, तो मैं उससे डरने वाला न था, लेकिन मुझे वकालत का पेशा ही पतित प्रतीत होता है। ज्यों-ज्यों वकीलों की आन्तरिक दशा का ज्ञान होता है, मुझे इस पेशे से घृणा होती जाती है। इसी शहर में सैकड़ों वकील और बैरिस्टर पड़े हुए हैं, लेकिन एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं, जिसके हृदय में दया हो, जो स्वार्थपरता के हाथों बिक न गया हो। छल और धूर्तता इस पेशे का मूल तत्त्व है। इसके बिना किसी तरह निर्वाह नहीं। अगर कोई महाशय जातीय आन्दोलन में शरीक भी होते हैं, तो स्वार्थ-सिद्वि के लिए, अपना ढोल पीटने के लिए। हम लोगों का समग्र जीवन वासना-भक्ति पर अर्पित हो जाता है। दुर्भाग्य से हमारे देश का शिक्षित समुदाय इसी दरगाह का मुजाविर होता जाता है, और यही कारण है कि हमारी जातीय संस्थाओं की शीघ्र वृद्धि नहीं होती। जिस काम में हमारा दिल न हो, हम केवल ख्याति और स्वार्थ के लिए उसके कर्णधार बने हुए हों, वह कभी सफल नहीं हो सकता। यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का अन्याय है, जिसने इस पेशे को इतना उच्च स्थान प्रदान कर दिया है। यह विदेशी सभ्यता का निकृष्टतम स्वरूप है कि देश का बुद्धिबल स्वयं धनोपार्जन न करके दूसरों की पैदा की हुई दौलत पर चैन करना, शहद की मक्खी न बनकर चींटी बनना अपने जीवन का लक्ष्य समझता है।

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