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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


''बेचारे की ज़िंदगी ही खराब हो गई।''

''भगवान की यही मरजी थी तो किसी का क्या बस चलता।''

''इसका बाप अभी इसी स्टेशन पर है?''

गुजराती की डबडबाई आँखों से आसू की बूँदें गिर पड़ी। बोली- ''उन्हें तो भगवान ने बुला लिया। साल-भर हो गए। एक मुसाफ़िर को पानी पिलाने लगे कि इतने में गाड़ी खुल गई। मुसाफ़िर जेब में से पैसे निकालने लगा। ये उससे पैसे लेने को लपके। गाड़ी तेज हो गई। न जाने कैसे गिर पड़े। पटरी के नीचे दब गए। भाग में मुँह देखना भी न बदा था। तब से फिर यहीं चली आई हूँ मेहनत-मज़दूरी करके दिन काटती हूँ। आप लोगों की दया-धरम से लड़का जी जाए, बस मुझे और कुछ न चाहिए। यहीं की रोटियां खा कर पली हूँ यहीं मरूँगी।''

दूसरे दिन नागपंचमी थी, गाँवों की बड़ी-छोटी लड़कियाँ बनाव-श्रृंगार करके अपनी-अपनी गुड़िया लेकर मेले चलीं। एक तालाब के किनारे मेला लगता है। वहाँ नाग की पूजा होती है। इन्हें दूध-चावल खिलाया जाता है। गुजराती भी खुश-खुश इस मेले में थी। इसके गाने की सुरीली आवाज़ दिल को खींच लेती थी। इसका दिल रंजो-गम के बोझ के नीचे इसी तरह खुशफ़हमिया कर रहा था, जैसे कोई जानदार घोड़ा सवार की रान के नीचे जोश से चलता है।

मैं सावन भर अपने मौजा में रही। आए-दिन औरतों का गाना होता था। कभी-कभी स्वाँग भरे जाते थे, और नक्लें भी होती थीं। गुजराती इन तफ़रियों की रूहे-रवाँ (प्राणवायु) थी। मैंने इसे नसीबों को कोसते या तक़दीर को रोते नहीं देखा। हयात (जीवन) एक नेमत है। इसकी ज़िंदगी इस हक़ीक़त की पहली मिसाल थी। मुझे एक मुद्दतदराज़ तक फिर अपने मौजे में जाने का इत्तिफ़ाक़ न हुआ।

प्लेग का दौर तो हर साल ही होता था, पर अब हम इसके आदी हो गए थे।

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