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प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


बालाजी यह कहते-कहते अचानक रुक गये। समुद्र की तरंगों का भाँति लोग इधर-उधर से उमड़ते चले आते थे। हाथों में लाठियाँ थी और नेत्रों में रुधिर की लाली, मुखमंडल क्रुद्ध, भृकुटी कुटिल। देखते-देखते यह जन-समुदाय प्राग्वालों के सिर पर पहुँच गया। समय सन्निकट था कि लाठियाँ सिर को चूमें कि बालाजी विद्युत की भाँति लपककर एक घोड़े पर सवार हो गये और अति उच्च स्वर में बोले-
‘भाइयो ! क्या अंधेर है? यदि मुझे आपना मित्र समझते हो तो झटपट हाथ नीचे कर लो और पैरों को एक इंच भी आगे न बढ़ने दो। मुझे अभिमान है कि तुम्हारे हृदयों में वीरोचित क्रोध और उमंग तरंगित हो रहे हैं। क्रोध एक पवित्र उद्वेग और पवित्र उत्साह है। परन्तु आत्म-संवरण उससे भी अधिक पवित्र धर्म है। इस समय अपने क्रोध को दृढ़ता से रोको। क्या तुम अपनी जाति के साथ कुल का कर्त्तव्य पालन कर चुके कि इस प्रकार प्राण विसर्जन करने पर कटिबद्ध हो? क्या तुम दीपक लेकर भी कूप में गिरना चाहते हो? ये लोग तुम्हारे स्वदेश बान्धव और तुम्हारे ही रुधिर हैं। उन्हें अपना शत्रु मत समझो। यदि वे मूर्ख हैं तो उनकी मूर्खता का निवारण करना तुम्हारा कर्तव्य हैं। यदि वे तुम्हें अपशब्द कहें तो तुम बुरा मत मानो। यदि ये तुमसे युद्ध करने को प्रस्तुत हों तुम नम्रता से स्वीकार कर तो और एक चतुर वैद्य की भांति अपने विचारहीन रोगियों की औषधि करने में तल्लीन हो जाओ। मेरी इस आशा के प्रतिकूल यदि तुममें से किसी ने हाथ उठाया तो वह जाति का शत्रु होगा।

इन समुचित शब्दों से चतुर्दिक शांति छा गयी। जो जहां था वह वहीं चित्र लिखित सा हो गया। इस मनुष्य के शब्दों में कहां का प्रभाव भरा था, जिसने पचास सहस्र मनुष्यों के उमडते हुए उद्वेग को इस प्रकार शीतल कर दिया, जिस प्रकार कोई चतुर सारथी दुष्ट घोडों को रोक लेता है, और यह शक्ति उसे किसने की दी थी? न उसके सिर पर राजमुकुट था, न वह किसी सेना का नायक था। यह केवल उस पवित्र् और नि:स्वार्थ जाति सेवा का प्रताप था, जो उसने की थी। स्वजाति सेवक के मान और प्रतिष्ठा का कारण वे बलिदान होते हैं जो वह अपनी जाति के लिए करता है। पण्डों और प्राग्वालों ने बालाजी का प्रतापवान रूप देखा और स्वर सुना, तो उनका क्रोध शान्त हो गया। जिस प्रकार सूर्य के निकलने से कुहरा छंट जाता है उसी प्रकार बालाजी के आने से विरोधियों की सेना तितर बितर हो गयी। बहुत से मनुष्य - जो उपद्रव के उदेश्य से आये थे - श्रद्वापूर्वक बालाजी के चरणों में मस्तक झुका उनके अनुयायियों के वर्ग में सम्मिलित हो गये। बदलू शास्त्री ने बहुत चाहा कि वह पण्डों के पक्षपात और मूर्खता को उतेजित करें, किन्तु सफलता न हुई।

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