लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचन्द की कहानियाँ 38

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9799

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

377 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का अड़तीसवाँ भाग


भाँवरें समाप्त हो गयीं तो मैं कोठे से उतरा। अब क्या बाकी था? चिता की राख भी जलमग्न हो चुकी थी। दिल को थामे, वेदना से तड़पता हुआ, जीने के द्वार तक आया; मगर द्वार बाहर से बन्द था। अब क्या हो?

उल्टे पाँव लौटा। अब तारा के आँगन से होकर जाने के सिवा दूसरा रास्ता न था। मैंने सोचा, इस जमघट में मुझे कौन पहचानता है, निकल जाऊँगा। लेकिन ज्योंही आँगन में पहुँचा, तारा की माताजी की निगाह पड़ गयी। चौंककर बोलीं, 'क़ौन, कृष्णा बाबू? तुम कब आये? आओ, मेरे कमरे में आओ। तुम्हारे चचा साहब के भय से हमने तुम्हें न्यौता नहीं भेजा। तारा प्रात:काल विदा हो जायगी। आओ, उससे मिल लो। दिन-भर से तुम्हारी रट लगा रही है।'

यह कहते हुए उन्होंने मेरा बाजू पकड़ लिया और मुझे खींचते हुए अपने कमरे में ले गयीं। फिर पूछा, 'अपने घर से होते हुए आये हो न?'

मैंने कहा, 'मेरा घर यहाँ कहाँ है?'

'क्यों, तुम्हारे चचा साहब नहीं हैं?'

'हाँ, चचा साहब का घर है, मेरा घर अब कहीं नहीं है। बनने की कभी आशा थी, पर आप लोगों ने वह भी तोड़ दी।'

'हमारा इसमें क्या दोष था भैया? लड़की का ब्याह तो कहीं-न-कहीं करना था। तुम्हारे चचाजी ने तो हमें मँझधार में छोड़ दिया था। भगवान् ही ने उबारा। क्या अभी स्टेशन से चले आ रहे हो? तब तो अभी कुछ खाया भी न होगा।'

'हाँ, थोड़ा-सा जहर लाकर दीजिए, यही मेरे लिए सबसे अच्छी दवा है।'

वृद्धा विस्मित होकर मुँह ताकने लगी। मुझे तारा से कितना प्रेम था, वह बेचारी क्या जानती थी? मैंने उसी विरक्ति के साथ फिर कहा, 'ज़ब आप लोगों ने मुझे मार डालने ही का निश्चय कर लिया, तो अब देर क्यों करती हैं? आप मेरे साथ यह दगा करेंगी यह मैं न समझता था। खैर, जो हुआ, अच्छा ही हुआ। चचा और बाप की आँखों से गिरकर मैं शायद आपकी आँखों में भी न जँचता। बुढ़िया ने मेरी तरफ शिकायत की नजरों से देखकर कहा, तुम हमको इतना स्वार्थी समझते हो, बेटा।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book