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प्रेमचन्द की कहानियाँ 39

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :202
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9800

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तालीसवाँ भाग


श्यामा (कुछ सोचकर)- ''मैं न जाऊँगी।''

दयानाथ ने स्तंभित होकर पूछा- ''क्या तुम मेरे साथ नहीं चलोगी?''

श्यामा- ''नहीं।''

दयानाथ और कुछ न बोले। क्रोध में भरे हुए घर से चल दिए। श्यामा ने रोका भी, पर उसकी उन्होंने एक न सुनी। दूसरे घर की खोज में निकल खड़े हुए, लेकिन श्यामा की निठुरता हृदय में काँटे के समान खटक रही थी- ''मैं इस पर कितना भरोसा करता था। मैं समझता था कि इसका मन किसी संकट से विचलित न होगा, किंतु हाँ! आज पहली परीक्षा में उसने मेरा गर्व चूर कर दिया।''

दयानाथ अब एक अलग मकान में रहते हैं। उनकी आय 300 रुपए मासिक से कम न थी। यह नई गृहस्थी उत्तम रीति से चल रही थी। नौकर-चाकर, रसोइया, सब मौजूद थे। हाँ, अभी तक घोड़ागाड़ी लेने की नौबत नहीं आई थी। पैरगाड़ी पर कचहरी जाते थे। उस दिन से फिर वे अपने पिता के घर कभी नहीं गए और न जानकीनाथ ही ने कुछ सुधि ली। आश्चर्य तो यह है कि श्यामा भी उनकी ओर से निश्चिंत बैठी हुई थी। कोई संदेशा भी नहीं भेजा, मानो उनसे कोई नाता ही नहीं है।

कुछ दिनों तक वे पिता के व्यवहार पर बहुत भरे रहे। इसी रोष में उन्होंने 'होमरूल लीग' का काम ऐसे उत्साह से किया कि नगर भर में स्वराज की चर्चा फैल गई। थोड़े ही दिनों में नगर की कायापलट हो गई। स्वराज्य पर व्याख्यानों का ताँता बँध गया। होमरूल पैंफलेट छपते और बाँटे जाते। मोहल्ले-मोहल्ले में छोटी-छोटी सभाएँ कराई जातीं। होमरूल के अर्थ समझाए जाते और लोगों को स्वराज-संबंधी बातों के जानने के लिए उत्साहित किया जाता। दयानाथ के इन उद्योगों का फल यह हुआ कि नगर की नई जागृति का जिक्र जहाँ छिड़ता, उनका नाम पहले वहाँ आता और पिता-पुत्र के झगड़े का जिक्र करते हुए मित्र लोग उनके आत्मिक बल को खूब सराहते, परंतु ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे त्यों-त्यों दयानाथ के मन की अवस्था में अंतर पड़ता जाता था। स्वच्छंद होकर जितने उत्साह से दयनाथ ने देश-सेवा का विचार किया था, उतना उत्साह अपने में अब नहीं पाते थे। इस अवस्था में जिन हृदय-तरंगों के उठने का स्वप्न उन्होंने आरंभ में देखा था, वह केवल स्वप्न ही सिद्ध हुआ।

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