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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


मीर - मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।

मिर्जा - अरे यार जाना, ही पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नहीं है, मुझे परेशान करने का बहाना है।

मीर - कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।

मिर्जा - अच्छा, एक चाल और चल लूँ।

मीर - हरगिज नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरे में हाथ न लगाऊँगा।

मिर्जा साहब मजबूर होकर अन्दर गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदल कर लेकिन कराहते हुए कहा- तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज कोई तुम जैसा आदमी हो!

मिर्जा - क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।

बेगम - क्या जैसे वह खुद निखट्टू ही, वैसे ही सबको समझते हैं? उनके भी बाल बच्चे है, या सबका सफाया कर डाला है!

मिर्जा - बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है तब मजबूर होकर खेलना पड़ता है।

बेगम - दुत्कार क्यों नहीं देते?

मिर्जा - बराबर का आदमी है, उम्र में, दर्जें में, मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है।

बेगम - तो मैं ही दुत्कार देती हूँ। नाराज हो जायेंगे, हो जाएँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेंगे, आप तशरीफ ले जाइए।

मिर्जा - हाँ-हाँ, कहीं ऐसा गजब भी न करना! जलील करना चाहती हो क्या? ठहर हिरिया, कहाँ जाती है!

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