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कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40 प्रेमचन्द की कहानियाँ 40प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग
गोपा की आँखों में आँसू भर आये, बोली- भैया, किस दिल से समझाऊँ? सुन्नी को देख कर तो मेरी छाती फटने लगती है। बस, यही जी चाहता है कि इसे अपने कलेजे में ऐसे रख लूँ, कि इसे कोई कड़ी आँख से देख भी न सके। सुन्नी फूहड़ होती, कटु भाषिणी होती, आरामतलब होती, तो समझती भी। क्या यह समझाऊँ कि तेरा पति गली-गली मुँह काला करता फिरे, फिर भी तू उसकी पूजा किया कर? मैं तो खुद यह अपमान न सह सकती। स्त्री-पुरुष में विवाह की पहली शर्त यह है कि दोनों सोलहों आने एक-दूसरे के हो जायँ। ऐसे पुरुष तो कम हैं, जो स्त्री को जौ भर भी विचलित होते देखकर शान्त रह सकें; पर ऐसी स्त्रियाँ बहुत हैं, जो पति को स्वच्छन्द समझती हैं। सुन्नी उन स्त्रियों में नहीं है। वह अगर आत्म समर्पण करती है तो आत्म समर्पण चाहती भी है, और यदि पति में यह बात न हुई, तो वह उसमें कोई सम्पर्क न रखेगी, चाहे उसका सारा जीवन रोते कट जाय।
यह कहकर गोपा भीतर गयी और एक सिंगारदान लाकर उसके अन्दर के आभूषण दिखाती हुई बोली- सन्नी इसे अब की यहीं छोड़ गयी। इसीलिए आयी थी। ये वे गहने हैं जो मैंने न जाने कितना कष्ट सहकर बनवाये थे। उसके पीछे महीनों मारी-मारी फिरी थी। यों कहो कि भीख माँगकर जमा किये थे। सुन्नी अब इसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखती! पहने तो किसके लिये? सिंगार करे तो किस पर? पाँच सन्दूक कपड़ों के दिये थे। कपड़े सीते-सीते मेरी आँखें फूट गयी। यह सब कपड़े उठाती लायी। इन चीज़ों से उसे घृणा हो गयी है। बस, कलाई में दो चूड़ियाँ और एक उजली साड़ी; यही उसका सिंगार है।
मैंने गोपा को सांत्वना दी- मैं जाकर ज़रा केदारनाथ से मिलूँगा। देखू तो, वह किस रंग ढंग का आदमी है।
गोपा ने हाथ जोड़कर कहा- नहीं भैया, भूलकर भी न जाना; सुन्नी सुनेगी तो प्राण ही दे देगी। अभिमान की पुतली ही समझो उसे। रस्सी समझ लो, जिसके जल जाने पर भी बल नहीं जाते। जिन पैरों से उसे ठुकरा दिया है, उन्हें वह कभी न सहलायेगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो लौंडी बना ले; लेकिन शासन तो उसने मेरा न सहा, दूसरों का क्या सहेगी!
मैंने गोपा से तो उस वक्त कुछ न कहा; लेकिन अवसर पाते ही लाला मदारीलाल से मिला। मैं रहस्य का पता लगाना चाहता था। संयोग से पिता और पुत्र, दोनों ही एक जगह पर मिल गये। मुझे देखते ही केदार ने इस तरह झुककर मेरे चरण छुए कि मैं उसकी शालीनता पर मुग्ध हो गया। तुरन्त भीतर गया और चाय, मुरब्बा और मिठाइयाँ लाया। इतना सौम्य, इतना सुशील, इतना विनम्र युवक मैंने न देखा था। यह भावना ही न हो सकती थी कि इसके भीतर और बाहर में कोई अन्तर हो सकता है। जब तक रहा, सिर झुकाए बैठा रहा। उच्छृखलता तो उसे छू भी नहीं गयी थी।
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