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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मैंने इस यात्रा में बड़े-बड़े अद्भुत दृश्य देखे, कितनी ही जातियों के आहार-व्यवहार, रहन-सहन का अवलोकन किया। मेरा यात्रा-वृत्तांत विचार, अनुभवों और निरीक्षण का अमूल्य रत्न होगा। मैंने ऐसी-ऐसी आश्चर्यजनक घटनाएँ आँखों से देखी हैं, जो अलिफलैला की कथाओं से कम मनोरंजक न होंगी। परन्तु वह घटना, जो मैंने मानसरोवर के तट पर देखी, उसकी मिसाल मुश्किल से मिलेगी। मैं उसे कभी न भूलूँगा। यदि मेरे इस तमाम परिश्रम का उपहार यही एक रहस्य होता तो भी मैं उसे काफी समझता। मैं यह बता देना आवश्क समझता हूँ कि मैं मिथ्यावादी नहीं, और न सिद्धियों तथा विभूतियों पर मेरा विश्वास है। यदि कोई दूसरा प्राणी यही घटना मुझसे बयान करता, तो मुझे उस पर विश्वास करने में बहुत संकोच होता। किन्तु मैं जो कुछ बयानकर रहा हूँ, वह सत्य घटना है। यदि मेरे आश्वासन पर भी कोई उस पर अविश्वास करे तो यह उसकी मानसिक दुर्बलता और विचारों की संकीर्णता है।

यात्रा का सातवाँ वर्ष था और ज्येष्ठ का महीना। मैं हिमालय के दामन में मानसरोवर के तट पर, हरी-हरी घास पर लेटा हुआ था। ऋतु अत्यंत सुहावनी थी–मानसरोवर के स्वच्छ निर्मल जल में आकाश और पर्वत-श्रेणी का प्रति बिम्ब, जल-पक्षियों का पानी पर तैरना, शुभ्र हिम-श्रेणी का सूर्य के प्रकाश से चमकना आदि दृश्य ऐसे मनोहर थे कि मैं आत्मोल्लास से विह्ल हो गया। मैंने स्विटजरलैंड और अमेरिका के बहुप्रशंसित दृश्य देखे हैं, पर उनमें यह शांतिप्रद शोभा कहाँ! मानव-बुद्धि ने उनके प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी कृतिमता से कलंकित कर दिया है।

मैं तल्लीन होकर इस स्वर्गीय आनन्द का उपभोग कर रहा था कि सहसा मेरी दृष्टि एक सिंह पर जा पड़ी, जो मन्द गति से कदम बढ़ाता हुआ मेरी ओर आ रहा था। उसे देखते ही मेरा खून सूख गया, होश उड़ गए। ऐसा बृहदाकार भयंकर जन्तु मेरी नजर से न गुजरा था। वहाँ मानसरोवर के अतिरिक्त कोई ऐसा स्थान नहीं था, जहाँ भागकर अपनी जान बचाता। मैं तैरने में कुशल हूँ, पर ऐसा भयभीत हो गया कि अपने स्थान से हिल न सका। मेरे अंग-प्रत्यंग मेरे काबू से बाहर थे समझ गया, मेरी जिन्दगी यहीं तक थी इस शेर के पंजे से बचने की कोई आशा न थी। अकस्मात मुझे स्मरण हुआ कि जेब में एक पिस्तौल गोलियों से भरी हुई रखी है, जो मैंने आत्मरक्षा के लिए चलते समय साथ ले ली थी, और अब तक प्राण-पण से इसकी रक्षा करता आया था। आश्चर्य है कि इतनी देर तक मेरी स्मृति कहाँ सोयी रही! मैंने तुरन्त ही पिस्तौल निकाली, और निकट था कि शेर पर वार करूँ कि मेरे कानों में ये शब्द सुनाई दिए–

मुसाफिर, ईश्वर के लिए वार न करना, अन्यथा तुझे दुःख होगा। सिंहराज से तुझे हानि न पहुँचेगी।

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