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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


रानी की यह असीम उदारता देखकर मैं दंग रह गई। कलियुग में भी कोई ऐसा दानी हो सकता है, इसकी मुझे आशा न थी। यद्यपि मुझे धन-भोग की लालसा न थी, पर केवल इस विचार से कि कदाचित् यह सम्पत्ति मुझे अपने भाइयों की सेवा करने की सामर्थ्य दे, मैंने एक जागीरदार की जिम्मेदारियाँ अपने सिर लीं। तब से दो वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, पर भोग-विलास ने मेरे मन को एक क्षण के लिए भी चंचल नहीं किया। मैं कभी पलंग पर नहीं सोयी। रूखी-सूखी वस्तुओं के अतिरिक्त, और कुछ नहीं खाया। पति-वियोग की दशा में स्त्री तपस्विनी हो जाती है, उसकी वासनाओं का अंत हो जाता है। मेरे पास कई विशाल भवन हैं, कई रमणीक वाटिकाएँ हैं; विषय-वासना की ऐसी कोई सामग्री नहीं, जो प्रचुर मात्रा में उपस्थित न हो, पर मेरे लिए सब त्याज्य है। भवन सूने पड़े हैं, और वाटिकाओं में खोजने से भी हरियाली न मिलेगी। मैंने उनकी ओर कभी आँख उठाकर भी नहीं देखा। अपने प्राणाधार के चरणों से लगे हुए मुझे अन्य किसी वस्तु की इच्छा नहीं।

मैं नित्यप्रति अर्जुननगर जाती हूँ और रियासत के आवश्यक काम-काज करके लौट आती हूँ। नौकर चाकरों को कड़ी आज्ञा दे गई है कि मेरी शांति में बाधक न हो। रियासत की सम्पूर्ण आय परोपकार में व्यय होती है। मैं उसकी कौड़ी भी अपने खर्च में नहीं लाती, आपको अवकाश हो, तो आप मेरी रियासत का प्रबंध देखकर बहुत प्रसन्न होंगे। मैंने इन दो वर्षों में बीस बड़े-बड़े तालाब और चालीस गोशाले बनवा दिए हैं। मेरा विचार है कि अपनी रियासत में नहरों का ऐसा जाल बिछा दूँ, जैसे शरीर में नाड़ियों का है। मैंने एक-सौ कुशल वैद्य नियुक्त कर दिए हैं, जो ग्रामों में विचरण करके रोग की निवृत्ति करें। मेरा कोई ऐसा ग्राम नहीं, जहाँ मेरी ओर से सफ़ाई का प्रबंध न हो। छोटे-छोटे गाँव में भी आपको लालटेनें जलती हुई मिलेंगी। दिन का प्रकाश ईश्वर देता है,रात के प्रकाश की व्यवस्था करना राजा का कर्तव्य है।  मैंने सारा प्रबंध पंडित श्रीधर के हाथों में दे दिया है। सबसे प्रथम कार्य जो मैंने किया, उन्हें ढूँढ़ निकालना और यह भार उनके सिर रख देना था, इस विचार से नहीं कि उनका सम्मान करना मेरा अभीष्ट था, बल्कि मेरी दृष्टि में कोई अन्य पुरुष ऐसा कर्तव्य-परायण, ऐसा निःस्पृह और ऐसा सच्चरित्र न था। मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह यावज्जीवन रियासत की बागडोर अपने हाथ में रखेंगे। विद्याधरी भी उनके साथ है, वही शांति और संतोष की मूर्ति, वही धर्म और व्रत की देवी। उसका पातिव्रत अब भी मानसरोवर की भाँति अपार और अथाह है। यद्यपि उसका सौंदर्य-सूर्य अब मध्याह्न पर नहीं, पर अब भी वह रनिवास की रानी जान पड़ती है। चिंताओं ने उसके मुख पर शिकन डाल दिए हैं। हम दोनों कभी-कभी मिल जाती हैं, किंतु बातचीत की नौबत नहीं आती। उसकी आँखें झुक जाती हैं। मुझे देखते ही उसके ऊपर घड़ों पानी पड़ जाता है। और उसके माथे पर जलबिन्दु दिखाई देने लगते हैं। मैं आपसे सत्य कहती हूँ कि मुझे विद्याधरी से कोई शिकायत नहीं। उसके प्रति मेरे मन में दिनोंदिन श्रद्धा और भक्ति बढ़ती जाती है। उसे देखती हूँ तो मुझे प्रबल उत्कंठा होती है कि पैरों पर गिर पड़ूँ। पतिव्रता स्त्री के दर्शन बड़े सौभाग्य से मिलते हैं, पर केवल इस भय से कि कदाचित् वह इसे खुशामद समझे, रुक जाती हूँ। अब मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि अपने स्वामी के चरणों में पड़ी रहूँ, और जब इस संसार से प्रस्थान करने का समय आये तो मेरा मस्तक उनके चरणों पर हो, और अंतिम शब्द जो मेरे मुँह से निकलें, ये ही हों कि- ईश्वर, दूसरे जन्म में भी मुझे इनकी चेरी बनाना।

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