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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मृग पृथ्वी पर पड़ा तड़प रहा था और उस अश्वारोही की भयंकर और हिंसाप्रिय आँखों से प्रसन्नता की ज्योति निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसने असाध्य साधन कर लिया। उसने उस पशु के शव को नापने के बाद उसके सींगों को बड़े ध्यान से देखा और मन-ही-मन प्रसन्न हो रहा था कि इससे कमरे की सजावट दूनी हो जाएगी और नेत्र सर्वदा उस सजावट का आनन्द सुख से भोगेंगे।

जब तक वह इस ध्यान में मग्न था, उसको सूर्य की प्रचंड किरणों का लेश मात्र भी ध्यान न था, किन्तु ज्यों ही उसका ध्यान उधर फिरा, वह उष्णता से विह्वल हो उठा और करुणापूर्ण आँखें नदी की ओर डालीं, लेकिन वहाँ तक पहुँचने का कोई मार्ग न दीख पड़ा और न कोई वृक्ष ही दीख पड़ा, जिसकी छाँह में वह जरा विश्राम करता।

इसी चिंतावस्था में एक दीर्घकाय पुरुष नीचे से उछलकर कगारे के ऊपर आया और अश्वारोही के सम्मुख खड़ा हो गया। अश्वारोही उसको देखकर बहुत ही अचम्भित हुआ। नवागंतुक एक बहुत ही सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था। मुख के भाव उसके हृदय की स्वच्छता और चरित्र की निर्मलता का पता देते थे। वह बहुत ही दृढ़-प्रतिज्ञ, आशा-निराशा तथा भय से बिलकुल बेपरवाह-सा जान पड़ता था। मृग को देखकर उस संन्यासी ने बड़े स्वाधीन भाव से कहा- राजकुमार, तुम्हें आज बहुत ही अच्छा शिकार हाथ लगा। इतना बड़ा मृग इस सीमा में कदाचित् ही दिखाई पड़ता है।

राजकुमार के अचम्भे की सीमा न रही, उसने देखा कि साधु उसे पहचानता है।

राजकुमार बोला- जी हाँ! मैं भी यही ख्याल करता हूँ। मैंने भी आज तक इतना बड़ा हिरन नहीं देखा। लेकिन इसके पीछे मुझे आज बहुत हैरान होना पड़ा।

संन्यासी ने दयापूर्वक कहा- नि:संदेह तुम्हें दु:ख उठाना पड़ा होगा। तुम्हारा मुख लाल हो रहा है और घोड़ा भी बेदम हो गया है। क्या तुम्हारे संगी बहुत पीछे रह गए?

इसका उत्तर राजकुमार ने बिलकुल लापरवाही से दिया, मानो उसे इसकी कुछ चिंता न थी!

संन्यासी ने कहा- यहाँ ऐसी कड़ी धूप और आंधी में खड़े तुम कब तक उनकी राह देखोगे? मेरी कुटी में चलकर जरा विश्राम कर लो। तुम्हें परमात्मा ने ऐश्वर्य दिया है, लेकिन कुछ देर के लिए संन्यासाश्रम का रंग भी देखो और वनस्पतियों और नदी के शीतल जल का स्वाद लो।

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