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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


इन पाँच बरसों में प्रेमनाथ ने दौलत, इज्जत, दीन, ईमान सब-कुछ बी हुस्ना की नज़र कर दिया। अगर वह छुपे-छुपे हुस्ना की आराधना उम्र भर किया करते तो कोई पूछताछ न होती, लेकिन एलानिया खुले बंदों डंके की चोट रंगरलियाँ मनाना समाज को कब बरदाश्त हो सकता था? लोगों की आमदोरफ्त बंद हो गई। नातेदार बेग़ाने हो गए। उन्हें देखकर कतरा जाते। माँ ने रो-रोकर समझाया। बीवी ने मिन्नतें कीं। दाना-पानी छोड़ा। मगर प्रेमनाथ के दिल में हुस्ना के सिवा और किसी के लिए अब जगह न थी। यहाँ तक आखिर माँ मजबूर होकर तीरथ-यात्रा करने चली गई और गोमती ने मैके की राह ली। प्रेमनाथ का रास्ता और भी साफ़ हो गया। अताईयों और मीरासियों की सुहबत रहने लगी। मजहबी पाबंदियाँ पहले ही शाख पर जा बैठी थीं, अब उनके पर निकल आए। उड़ गईं। हम-निवाला व हम-प्याला हुए। बग़ैर लुक सुहबत कहीं? निष्कपटता में विवेक कहाँ? प्रेम में प्रतिकूलता कैसी? छूत-छात के मिटते ही उनका हिंदूपन भी मिट गया। जब हिंदू न रहे, तो मुसलमान, ईसाई, जो चाहे कहो, जो चाहे समझो। माँ और बीवी की किनाराकशी ने बगावत की, और फिर भी उत्तेजना की एक दिन जामे मस्जिद में कल्मा पढ़ लिया। उन्हें इस्लाम से कोई खास आस्था न थी। जज्बात हिंदू थे, ख्यालात हिंदू थे, ताल्लुक़ात हिंदू थे, हमदर्दियाँ हिंदू थीं, लेकिन शिष्टाचार हिंदू न थे, इसलिए वह मुसलमान थे। मुसलमानों के साथ उठना-बैठना, खाना-पीना, क्या उनके मुसलमान होने की दलील काटने वाली थीं? पर उससे फ़ायदा ही क्या कि न इधर में न उधर? कल्मा पढ़ते ही प्रेमनाथ उकत हुसैन बन गए।

लेकिन इस कूचे में कौन साहबे-ज़र आया जो चंद दिनों में दानों का मुहताज न हो गया हो? दुनिया के बाजार में जल्द जिन्स की सूरत इख्तियार करती है। सुख-भोग के बाग में शोहदेपन और फ़ाकामस्ती के सिवा और क्या है? शमा बुझते ही परवाने तितर-बितर हो गए। फलहीन वृक्ष पर परिंदे क्यों चहकें? बाबा आदम के ज़माने से जो होता है, वही फिर हुआ। हुस्ना ने नए आशिक ढूँढ निकाले और मियाँ उकत हुसैन बेयारों मददगार, बेरफ़ीक़ व रामगुसार एक पुराने मस्जिद में पनाहगुज़ी हुए। सारी दौलत खर्च करके रुसवाई, लज्जा जिल्लत और निर्धनता जैसी बेबफा चीज़ें खरीद लाए। बीमारी घाटे में मिली।
अब प्रेमनाथ की आँखें खुलीं। तीन हफ्ते से मस्जिद के गोशे में पड़ा कराह रहा था, पर कोई पुरसाने-हाल न था। पुराने दोस्त उसकी विक्षिप्तता से मायूस होकर उसके नाम से रो बैठे थे। नए दोस्तों में हँसने वालों की तादाद ज्यादा थी। इस हास्यास्पद स्थिति में प्रेमनाथ को प्यारी माँ और मेहरवान बीवी की याद आई। आह! कितनी काबिलेरश्क ज़िंदगी थी। क्या बेफ़िक्री के दिन थे। वह अस्मत की देवी मुझे कितना समझाती रही, पर मैं हवस के नशे में अचेत हो रहा था। काश! एक बार फिर उस देवी से मिल जाता तो ज़िंदगी-भर उसके क़दमों से जुदा न होता। मगर अब ऐसे नसीब कहाँ? अब मुझे कौन पूछेगा? गोमती को तो मेरी सूरत से नफ़रत हो गई है।

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