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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मंगरू ने बैठे-बैठे कहा- देखो नब्बी, तुम भी हमारे देश के आदमी हो। कोई मौका पड़े, तो हमारी मदद करोगे न? जाकर साहब से कह दो, मंगरू कहीं गया है, बहुत होगा जुरमाना कर देंगे।

नब्बी- न भैया, गुस्से में भरा बैठा है, पिये हुए है, कहीं मार चले, तो बस, चमड़ा इतना मजबूत नहीं है।

मंगरू- अच्छा तो जाकर कह दो, नहीं आता।

नब्बी- मुझे क्या, जाकर कह दूंगा। पर तुम्हारी खैरियत नहीं है के बंगले पर चला।

यह वही साहब थे, जिनसे आज मंगरू की भेंट हुई थी। मंगरू जानता था कि साहब से बिगाड़ करके यहां एक क्षण भी निर्वाह नहीं हो सकता। जाकर साहब के सामने खड़ा हो गया। साहब ने दूर से ही डांटा- वह औरत कहां है? तुमने उसे अपने घर में क्यों रखा है?

मंगरू- हजूर, वह मेरी ब्याहता औरत है।

साहब- अच्छा, वह दूसरा कौन है?

मंगरू- वह मेरी सगी बहन है हजूर !

साहब- हम कुछ नहीं जानता। तुमको लाना पड़ेगा। दो में से कोई, दो में से कोई।

मंगरू पैरों पर गिर पड़ा और रो-रोकर अपनी सारी राम कहानी सुना गया। पर साहब जरा भी न पसीजे! अन्त में वह बोला- हुजूर, वह दूसरी औरतों की तरह नहीं है। अगर यहां आ भी गयी, तो प्राण दे देंगी।

साहब ने हंसकर कहा- ओ ! जान देना इतना आसान नहीं है !

नब्बी- मंगरू अपनी दांव रोते क्यों हो? तुम हमारे घर नहीं घुसते थे! अब भी जब घात पाते हो, जा पहुंचते हो। अब क्यों रोते हो?

एजेण्ट- ओ, यह बदमाश है। अभी जाकर लाओ, नहीं तो हम तुमको हण्टरों से पीटेगा।

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