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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


मैं- दिल्लगी नहीं, मैं सच कहता हूं। मुझे खुद आश्चर्य होता है कि इतने दिनों में तुमने इतनी योग्यता क्योंकर पैदा कर ली। अभी तुम्हें अंग्रेजी शुरू किए तीन बरस से ज्यादा नहीं हुए।

मेहर सिंह- क्या मैं किसी पढ़ी-लिखी लेडी को खुश रख सकूंगा।

मैं- (जोश से) बेशक!

गर्मी का मौसम था। मैं हवा खाने शिमले गया हुआ था। मेहर सिंह भी मेरे साथ था। वहां मैं बीमार पड़ा। चेचक निकल आई, तमाम जिस्म में फफोले पड़ गये। पीठ के बल चारपाई पर पड़ा रहता। उस वक्त मेहर सिंह ने मेरे साथ जो-जो एहसान किये वह मुझे हमेशा याद रहेंगे। डाक्टरों की सख्त मनाही थी कि वह मेरे कमरे में न आवे। मगर मेहर सिंह आठों पहर मेरे ही पास बैठा रहता। मुझे खिलाता-पिलाता, उठाता-बिठाता। रात-रात भर चारपाई के करीब बैठकर जागते रहना मेहर सिंह ही का काम था। सगा भाई भी इससे ज्यादा सेवा नहीं कर सकता था। एक महीना गुजर गया। मेरी हालत रोज-ब-रोज बिगड़ती जाती थी। एक रोज मैंने डॉक्टर को मेहर सिंह से कहते हुए सुना कि इनकी हालत नाजुक है। मुझे यकीन हो गया कि अब न बचूंगा, मगर मेहर सिंह कुछ ऐसी दृढ़ता से मेरी सेवा-सुश्रूषा में लगा हुआ था कि जैसे वह मुझे जबर्दस्ती मौत के मुंह से बचा लेगा। एक रोज शाम के वक्त मैं कमरे में लेटा हुआ था कि किसी के सिसकी लेने की आवाज आई। वहां मेहर सिंह को छोड़कर और कोई न था। मैंने पूछा-मेहर सिंह, मेहर सिंह, तुम रोते हो!

मेहर सिंह ने जब्त करके कहा- नहीं, रोऊं क्यों, और मेरी तरफ बड़ी दर्द-भरी आंखों से देखा।

मैं- तुम्हारे सिसकने की आवाज आई।

मेहर सिंह- वह कुछ बात न थी। घर की याद आ गयी थी।

मैं- सच बोलो।

मेहर सिंह की आंखें फिर डबडबा आईं। उसने मेज पर से आइना उठाकर मेरे सामने रख दिया। हे नारायण! मैं खुद अपने को पहचान न सका। चेहरा इतना ज्यादा बदल गया था। रंगत बजाय सुर्ख के सियाह हो रही थी और चेचक के बदनुमा दागों ने सूरत बिगाड़ दी थी। अपनी यह बुरी हालत देखकर मुझसे भी जब्त न हो सका और आंखें डबडबा गईं। वह सौन्दर्य जिस पर मुझे इतना गर्व था बिलकुल विदा हो गया।

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