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प्रेमचन्द की कहानियाँ 45

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9806

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग


'मुझे क्या खबर!'

'मगर आप तो उस पर बेतरह रीझे हुए थे।'

'मैं उस पर रीझा था! आप सनक तो नहीं गये हैं! जिस पर रीझा था, जब उसी ने साथ न दिया, तो अब दूसरों पर क्या रीझूँगा?'

मैंने बैठकर उसकी गर्दन में हाथ डाल दिया और धमकाकर बोला, 'देखो होरीलाल, मुझे चकमा न दो। पहले मैं तुम्हें जरूर व्रतधारी समझता था, लेकिन तुम्हारी वह रसिकता देखकर, जिसका दौरा तुम्हारे ऊपर एक महीना पहले हुआ था, मैं यह नहीं मान सकता कि तुमने अपनी अभिलाषाओं को सदा के लिए दफन कर दिया है। इस बीच में जो कुछ हुआ है, उसका पूरा-पूरा वृत्तान्त मुझे सुनाना पड़ेगा। वरना समझ लो, मेरी और तुम्हारी दोस्ती का अन्त है।'

होरीलाल की आँखें सजल हो गयीं। हिचक-हिचककर बोले, 'मेरे साथ इतना बड़ा अन्याय मत करो, भाईजान! अगर तुम्हीं मुझपर ऐसे सन्देह करने लगोगे, तो मैं कहीं का न रहूँगा। उस स्त्री का नाम मिस इंदिरा है। यहाँ जो लड़कियों का हाईस्कूल है, उसी की हेड मिस्ट्रेस होकर आयी है। मेरा उससे कैसे परिचय हुआ, यह तो तुम्हें मालूम ही है। उसकी सहृदयता ने मुझे उसका प्रेमी बना दिया। इस उम्र में और शोक का यह भार सिर पर रखे हुए, सहृदयता के सिवा मुझे उसकी ओर कौन-सी चीज खींच सकती थी? मैं केवल अपनी मनोव्यथा की कहानी सुनाने के लिए नित्य विरहियों की उमंग के साथ उसके पास जाता था। वह रूपवती है, खुशमिजाज है, दूसरों का दु:ख समझती है और स्वभाव की बहुत कोमल है, लेकिन तुम्हारी भाभी से उसकी क्या तुलना! वह तो स्वर्ग की देवी थी। उसने मुझ पर जो रंग जमा दिया, उस पर अब दूसरा रंग क्या जमेगा। मैं उसी ज्योति से जीवित था। उस ज्योति के साथ मेरा जीवन भी विदा हो गया। अब तो मैं उसी प्रतिमा का उपासक हूँ, जो मेरे हृदय में है। किसी हमदर्द की सूरत देखता हूँ, तो निहाल हो जाता हूँ और अपनी दु:ख-कथा सुनाने दौड़ता हूँ। यह मेरी दुर्बलता है, यह जानता हूँ, मेरे सभी मित्र इसी कारण मुझसे भागते हैं, यह भी जानता हूँ। लेकिन क्या करूँ भैया, किसी-न-किसी को दिल की लगी सुनाये बगैर मुझसे नहीं रहा जाता। ऐसा मालूम होता है, मेरा दम घुट जायगा। इसलिए जब मिस इंदिरा की मुझ पर दया-दृष्टि हुई; तो मैंने इसे दैवी अनुरोध समझा और उस धुन में ज़ो मेरे मित्रवर्ग दुर्भाग्यवश उन्माद समझते हैं वह सब-कुछ कह गया, जो मेरे मन में था और है एवं मरते दम तक रहेगा। उन शुभ दिनों की याद कैसे भुला दूँ? मेरे लिए तो वह अतीत वर्तमान से भी ज्यादा सजीव और प्रत्यक्ष है। मैं तो अब भी उसी अतीत में रहता हूँ। मिस इंदिरा को मुझ पर दया आ गयी, एक दिन उन्होंने मेरी दावत की और कई स्वादिष्ट खाने अपने हाथ से बनाकर खिलाये। दूसरे दिन मेरे घर आयीं और यहाँ की सारी चीजों को व्यवस्थित रूप में सजा गयीं। तीसरे दिन कुछ कपड़े लायीं और मेरे लिए खुद एक सूट तैयार किया! इस कला में बड़ी चतुर हैं। एक दिन शाम को क्वींस पार्क में मुझसे बोलीं 'आप अपनी शादी क्यों नहीं कर लेते? '

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