कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45 प्रेमचन्द की कहानियाँ 45प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग
जब वर ने घोड़े की पीठ पर आसन जमा लिया, तो घोड़ा मानो नींद से जागा। विचार करने लगा, थोड़े-से दाने के बदले अपने इस स्वत्व से हाथ धोना एक कटोरे कढ़ी के लिए अपने जन्मसिद्ध अधिकारों को बेचना है। उसे याद आया कि मैं कितने दिनों से आज के दिन आराम करता रहा हूँ, तो आज क्यों यह बेगार करूँ? ये लोग मुझे न जाने कहाँ ले जायँगे, लौंड़ा आसन का पक्का जान पड़ता है, मुझे दौड़ायेगा, एँड़ लगायेगा, चाबुक से मार-मार कर अधमुँआ कर देगा, फिर न जाने भोजन मिले या नहीं। यह सोच-विचार कर उसने निश्चय किया कि मैं यहाँ से कदम न उठाऊँगा। यही न होगा मारेंगे, सवार को लिये हुए जमीन पर लोट जाऊँगा, आप ही छोड़ देंगे। मेरे मालिक मीर साहब भी तो यहीं कहीं होंगे। उन्हें मुझ पर इतनी मार पड़ती कभी पसंद न आयेगी कि कल उन्हें कचहरी भी न ले जा सकूँ।
वर ज्यों ही घोड़े पर सवार हुआ स्त्रियों ने मंगलगान किया, फूलों की वर्षा हुई। बारात के लोग आगे बढ़े। मगर घोड़ा ऐसा अड़ा कि पैर ही नहीं उठाता। वर उसे एँड़ लगाता है, चाबुक मारता है, लगाम को झटके देता है, मगर घोड़े के कदम मानों जमीन में ऐसे गड़ गये हैं कि उखड़ने का नाम नहीं लेते।
मुंशी जी को ऐसा क्रोध आता था कि अपना जानवर होता तो गोली मार देते। मित्र ने कहा– अड़ियल जानवर है, यों न चलेगा। इसके पीछे से डंडे लगाओ, आप दौड़ेगा।
मुंशी जी ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। पीछे से जाकर कई डंडे लगाये, पर घोड़े ने पैर न उठाये, उठाये भी तो अगले पैर, और आकाश की ओर। दो-एक बार पिछले पैर भी, जिससे विदित होता था कि वह बिलकुल प्राणहीन नहीं है। मुंशी जी बाल-बाल बच गये।
तब दूसरे मित्र ने कहा– सकी पूँछ के पास एक जलता हुआ कुंदा जलाओ, आँच के डर से भागेगा।
यह प्रस्ताव भी स्वीकृत हुआ। फल यह हुआ कि घोड़े की पूँछ जल गयी। वह दो-तीन बार उछला-कूदा पर आगे न बढ़ा। पक्का सत्याग्रही था कदाचित् इन यंत्रणाओं ने उसके संकल्प को और भी दृढ़ कर दिया।
इतने में सूर्यास्त होने लगा। पंडित जी ने कहा– ‘‘जल्दी कीजिए नहीं तो मुहूर्त टल जायगा।’’ लेकिन अपने वश की बात तो थी नहीं। जल्दी कैसे होती। बराती लोग गाँव के बाहर जा पहुँचे। यहाँ स्त्रियों और बालकों का मेला लग गया। लोग कहने लगे ‘‘कैसा घोड़ा है कि पग ही नहीं उठाता।’’ एक अनुभवी महाशय ने कहा–‘‘ मार-पीट से काम न चलेगा। थोड़ा-सा दाना मँगवाइए। एक आदमी इसके सामने तोबड़े में दाना दिखाता हुआ चले। दाने के लालच में खट-खट चला जायगा।’’ मुंशी जी ने यह उपाय भी करके देखा पर सफल मनोरथ न हुए। घोड़ा अपने स्वत्व को किसी दाम पर बेचना न चाहता था। एक महाशय ने कहा– ‘‘इसे थोड़ी-सी शराब पिला दीजिए नशे में आ कर खूब चौकड़ियाँ भरने लगेगा।’’ शराब की बोतल आयी। एक तसले में शराब उंड़ेल कर घोड़े के सामने रखी गयी, पर उसने सूँघी तक नहीं।
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