कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 45 प्रेमचन्द की कहानियाँ 45प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतालीसवाँ भाग
फिर क्या देखता हूँ कि मेरे विवाह की तैयारियाँ हो रही हैं। अब तक तो मैंने जो बातें देखी थीं उनसे जीवन का सुधार होने की ही आशा थी, किसी चिंता या भय की बात न थी, लेकिन विवाह जैसी महान घटना ने मेरी चेतना को मानो धक्के देकर जगा दिया। बालपन था, यौवन अगर लौट आया है तो भी कुछ गाँठ से तो नहीं जाता, लेकिन कहीं विवाह हो गया तो एक की जगह दो पत्नियाँ हो जाएँगी! सोचिए, कितनी भीषण समस्या थी। मैं बड़ा धर्म-संकट में पड़ा हुआ हूँ कि विवाह करूँ या न करूँ। इस विवाह-संवाद ने मेरी पूर्वस्मृतियों को कुछ और जागृत कर दिया था। सोचता था कि भला यहाँ किसी को यह विश्वास आवेगा! मैं तो पहले ही से इस वैतरणी में पड़ा हुआ हूँ और वह भी सिर पर आधी दरजन छोटी बड़ी गठरियाँ लिए हुए। मुझे खुद भी तो पूरा-पूरा निश्चय नहीं है कि मैं वास्तव में क्या हूँ बूढ़ा या जवान? मैं तो इस दुविधा में पड़ा हुआ हूँ और उधर घर वाले विवाह के सब सामान जुटाने पर तुले हुए हैं। अम्माँ हैं कि उनके पाँव जमीन पर नहीं पड़ते, मानो संसार की जबसे सृष्टि हुई है, उनके बेटे के सिवाय और किसी को यह सौभाग्य प्राप्त ही नहीं हुआ। दादा भी जिन्हें बाजार से नफ़रत है, जो बाजार को पैसे का परनाला कहते हैं और जिन्हें आभूषणों के नाम से चिढ़ है; इस विषय में अम्माँ जी से हज़ारों ही बार उनकी ठन चुकी है, अम्माँजी के अकबरी हमलों के सामने भी वह राना प्रताप की भाँति बराबर डटे रहे। आज खुश-खुश सराफों की दुकानों की हवा खा रहे हैं। बार-बार बाजार आते जाते थे, पर माथे पर बल का नाम भी न था और मैं इस सोच में हूँ कि यह जवानी कही धोखा न हो। स्मृति के किसी गुप्त भाग में यह वात छुपी हुई मालूम होती है कि मेरे बाल बच्चे हैं, स्त्री है, साले हैं, ससुर हैं। मुझे चिंता हो रही थी कि जब मैं यह नई बहू लिए घर जाऊँगा तो लोग मुझे क्या कहेंगे। जवान बेटे हैं जो वृद्ध-विवाह को जीवन का सबसे बड़ा पाप समझते हैं; जिसके साथ जीवन के तीस साल बीते हैं वह स्त्री है। उन सबों के सामने मैं कौन मुँह लेकर जाऊँगा। यह न पूछिए कि नववधू के साथ मैं अपने माँ-बाप के घर के बदले अपने घर क्यों लौटता? मेरा तो घरबार ही नहीं, लेकिन यहाँ तो पूर्व स्मृतियाँ बनी हुई थीं, उनके कुछ मिटे-मिटे से निशान साफ़ नजर आ रहे थे। फिर स्वप्न न्याय और शृंखला और घटनाक्रम का अनुसरण भी तो नहीं करता। सोचता था- मित्र-वर्ग कितना मज़ाक उड़ावेंगे- वाह महाशय! आप तो अनमेल विवाहों के बड़े विरोधी थे। यह आपको क्या सनक सवार हो गई!
प्राण संकट में पड़े हुए थे, सोचता था- अम्माँ को कैसे समझाऊँ? कहीं लोग हँसने न लगें कि यह दीवाना हो गया है।
इतने में बाजे बजने लगे। अम्माँ ने आकर मुझसे कहा- ''तुम्हारी भी विचित्र बात है। ऐसा मुँह लटकाए बैठे हो जैसे कोई चिंता फ़िक्र सवार हो। सारे घर में मंगल गान हो रहा है और तुम रोनी सूरत बनाए बैठे हो। अभी तो हम जीते हैं, तुम्हें क्या चिंता? जब हम मर जाएँ तब चिंता करना! उठो, बरात जा रही है, जल्दी से कपड़े पहन लो!''
मैं कुछ जवाब न दे सका। माँ से कैसे कहूँ कि मेरा तो विवाह एक बार तुम्हीं कर चुकी हो। चुपचाप जाकर कपड़े पहने। स्त्रियों ने गीत गाए। नाई, धोबी, आदि ने न्योछावर पाए और मैं दूल्हा बना हुआ घर से निकलकर पालकी पर बैठा। कहारों ने पालकी उठाई।
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