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प्रेमचन्द की कहानियाँ 46

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9807

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतालीसवाँ अन्तिम भाग


गजेन्द्र सिंह की शादी जिस खानदान में हुई थी, उस खानदान में राजपूती जौहर बिलकुल फना न हुआ था। उनके ससुर पेंशन सूबेदार थे। साले शिकारी और कुश्तीबाज। शादी हुए दो साल हो गए थे, लेकिन अभी तक एक बार भी ससुराल न आ सका। इम्तहानों से फुरसत ही न मिलती थी। लेकिन अब पढ़ाई खतम हो चुकी थी, नौकरी की तलाश थी। इसलिये अबकी होली के मौके पर ससुराल से बुलावा आया तो उसने कोई हील-हुज्जत न की। सूबेदार की बड़े-बड़े अफसरों से जान-पहचान थी, फौजी अफसरों की हुक्काम कितनी कद्र और कितनी इज्जत करते हैं, यह उसे खूब मालूम था। समझा मुमकिन है, सूबेदार साहब की सिफारिश से नायब तहसीलदारी में नामजद हो जाय। इधर श्यामदुलारी से भी साल-भर से मुलाकात नहीं हुई थी। एक निशाने से दो शिकार हो रहे थे। नया रेशमी कोट बनवाया और होली के एक दिन पहले ससुराल जा पहुंचा। अपने गराण्डील सालों के सामने बच्चा-सा मालूम होता था।

तीसरे पहर का वक्त था, गजेन्द्र सिंह अपने सालों से विद्यार्थी काल के कारनामें बयान कर रहा था। फुटबाल में किस तरह एक देव जैसे लम्बे-तड़ंगे गोरे को पटखनी दी, हाकी मैच में किस तरह अकेले गोल कर लिया, कि इतने में सूबेदार साहब देव की तरह आकर खड़े हो गए और बड़े लड़के से बोले- अरे सुनो, तुम यहां बैठे क्या कर रहे हो। बाबू जी शहर से आये है, इन्हें ले जाकर जरा जंगल की सैर करा लाओ। कुछ शिकार-विकार खिलाओ। यहा ठंठर-वंठर तो है नहीं, इनका जी घबराता होगा। वक्त भी अच्छा है, शाम तक लौट आओगे।

शिकार का नाम सुनते ही गजेन्द्र सिंह की नानी मर गई। बेचारे ने उम्र-भर कभी शिकार न खेला था। यह देहाती उजड्ड लौंडे उसे न जाने कहां-कहां दौड़ाएंगे, कहीं किसी जानवर का सामन हो गया तो कहीं के न रहे। कौन जाने हिरन ही चोट कर बैठे। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर कभी-कभी पलट पड़ता है। कहीं भेड़िया निकल आये तो काम ही तमाम कर दे। बोले- मेरा तो इस वक्त शिकार खेलने को जी नहीं चाहता, बहुत थक गया हूं।

सूबेदार साहब ने फरमाया- तुम घोड़े पर सवार हो लेना। यही तो देहात की बहार है। चुन्नू, जाकर बन्दूक ला, मैं भी चलूंगा। कई दिन से बाहर नहीं निकला। मेरा राइफल भी लेते आना। चुन्नू और मुन्नू खुश-खुश बन्दूक लेने दौड़े, इधर गजेन्द्र की जान सूखने लगी। पछता रहा था कि नाहक इन लौडों के साथ गप-शप करने लगा। जानता कि यह बला सिर पर आने वाली है, तो आते ही फौरन बीमार बनकर चारपाई पर पड़ रहाता। अब तो कोई हीला भी नहीं कर सकता। सबसे बड़ी मुसीबत घोड़े की सवारी। देहाती घोड़े यों ही थान पर बंधे-बंधे टर्रे हो जाते हैं और आसन का कच्चा सवार देखकर तो वह और भी शेखियां करने लगते हैं। कहीं अलफ हो गया मुझे लेकर किसी नाले की तरफ बेतहाशा भागा तो खैरियत नहीं। दोनों साले बन्दूकें लेकर आ पहुंचे। घोड़ा भी खिंचकर आ गया। सूबेदार साहब शिकुरी कपड़े पहन कर तैयार हो गए। अब गजेन्द्र के लिए कोई हीला न रहा। उसने घोड़े की तरफ कनाखियों से देखा—बार-बार जमीन पर पैर पटकता था, हिनहिनाता था, उठी हुई गर्दन, लाल आंखें, कनौतियां खड़ी, बोटी-बोटी फड़क रही थी। उसकी तरफ देखते हुए डर लगता था।

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