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धर्म एवं दर्शन >> कृपा

कृपा

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :49
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9812

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


कर्मफल का गणित तो बिधाता ही जान सकते हैं, मनुष्य के लिये तो उसकी कल्पना ही बड़ी दुखदायी है।

हम इसे भौतिक जगत् में इस रूप में देख सकते हैं कि एक ओर तो जिस व्यक्ति के साथ अन्याय या कोई अपराध होता है तो वह न्यायालय में जाता है, उस न्यायालय में संतोष न होने पर वह उससे ऊपर के न्यायालय में जाता है फिर भी उसे संतुष्टि न हो तो क्रमश: वह सर्वोच्च न्यायालय तक जा सकता है। दूसरी ओर हम देखते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय में भी यदि किसी अपराधी को मृत्युदण्ड की सजा सुना दी जाती है, तो वह अपराधी व्यक्ति भी अंत में दया की प्रार्थना लेकर राष्ट्रपति के पास जाता है और राष्ट्रपति चाहे तो उसकी सजा में परिवर्तन भी कर सकता है। इसका अर्थ यही है कि संसार मं् भी व्यक्ति न्यायालय के बाद अंत में कृपा प्राप्ति का ही प्रयास करता है। संसार में कोई व्यक्ति यदि यह समझता है कि मैं सतत सावधान रहूँगा और कोई पाप अथवा अपराध नहीं करूँगा तो उसे बधाई। इससे बढ़िया बात और क्या होगी? पर क्या ऐसा कर पाना संभव है। मनुष्य के सामने कैसी-कैसी परिस्थितियाँ आती हैं? कैसे-कैसे कारण और समय आते हैं कि उसके बिना चाहे भी उससे पाप और अपराध हो ही जाते हैं। ऐसी स्थिति में हमें दो प्रकार के व्यक्ति मिलते हैं, एक तो वे हैं जिनको पाप करने पर गर्व का अनुभव होता है। वे अपने द्वारा किये गये उल्टे-सीधे अथवा उचित-अनुचित सभी कर्मों को ठीक ही मानते हैं। वे अपने किसी भी कर्म को कभी पाप नहीं मानते। स्वाभाविक रूप से ऐसे व्यक्तियों को कृपा की आवश्यकता नहीं होती। दूसरे प्रकार के व्यक्ति वे हैं जिनको लगता है कि हम अपने पुरुषार्थ से, प्रयत्न से पाप और दुर्गुणों को कभी नहीं हरा सकते। इसलिए वे अपने जीवन में कृपा की आवश्यकता का अनुभव करते हैं। ऐसे अनेक पात्रों का वर्णन गोस्वामीजी मानस में करते हैं।

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